Skip to main content

शायरी का जादूगर : साहिर

“उफ़क के दरीचे से किरणों ने झांका फ़ज़ा तन गई, रास्ते मुस्कुराए सिमटने लगी नरम कुहरे की चादर जवान शाख्सारों ने घूँघट उठाए परिंदों की आवाज़ से खेत चौंके पुरअसरार लै में रहट गुनगुनाए वो दूर एक टीले पे आँचल सा झलका तसव्वुर में लाखों दिए झिलमिलाये” साहिर, जिनका नाम बीसवीं सदी के महान शायरों में शुमार है, आज चर्चा शायरी के जादूगर साहिर लुधियानवी की। उर्दू के अज़ीम शायर साहिर लुधियानवी का जन्म पंजाब के लुधियाना में 8 मार्च 1921 को हुआ था। उनका पूरा नाम अब्दुल हई था। साहिर ने अपनी मैट्रिक तक की पढ़ाई लुधियाना के खालसा स्कूल से पूरी की। कॉलेज के कार्यक्रमों में वह अपनी गजलें और नज्में पढ़कर सुनाया करते थे जिससे उन्हें काफी शोहरत मिली। चार सालों तक लुधियाना कॉलेज में अध्ययन के बाद साहिर लुधियानवी को 1941 में कॉलेज छोड़ने के लिए कह दिया गया। उनके करीबी बताते हैं कि दो घटनाओं की वजह से ही साहिर को कॉलेज से निष्कासित किया गया था। 1941 में साहिर छात्र संगठन के अध्यक्ष थे और उनका लेखन अंग्रेजी सरकार के खिलाफ हुआ करता था हालांकि कुछ लोगों का यह भी कहना है कि उनके प्रेम प्रसंग की चर्चा की वजह से ही उन्हें कॉलेज से निकाला गया था। इसके बाद साहिर ने लुधियाना छोड़ दिया और लाहौर चले गए। जहां उन्होंने अपनी पहली पुस्तक तल्खियां लिखीं। लगभग दो वर्ष के अथक प्रयास के बाद आखिरकार उनकी मेहनत रंग लाई और तल्खियां का प्रकाशन हुआ। कैफ़ी आज़मी लिखते हैं “ये १९४३ का ज़िक्र है जब तल्खियां की एक जिल्द तबसरे के लिए आयी और मैंने उसका मुताला किया तो ख़ुशी भी हुई और हैरत भी। ख़ुशी इस बात की कि साहिर की शायरी उलझाव और इबहाम से पाक थी और हैरत ये हुई कि ऐसा होनहार शायर अब तक कहाँ छुपा हुआ था?” इस बीच साहिर प्रगतिशील लेखक संघ के जाने माने चेहरे बन गए। इस दौरान उन्होंने उर्दू की रिसाले आदाबे लतीफ, शाहकार और सवेरा जैसी कई लोकप्रिय उर्दू पत्रिकाओं का सम्पादन किया। लुधियाना के जिस सरकारी कॉलेज ने उन्हें निष्कासित किया था बाद में उसी ने उन्हें बुलाकर सम्मानित भी किया। जिस कॉलेज ने उन्हें निष्कासित किया था उसी कॉलेज की ओर से उन्हें १९४३ में बुलाया गया। उन्होंने कॉलेज के लिए एक नज़्म पढ़ी “नज़्र ए कॉलेज” इसमें उन्होंने लिखा था - “इस सर ज़मीन पे आज हम इक बार ही सही, दुनिया हमारे नाम से बे-ज़ार ही सही लेकिन हम इस फ़िज़ाओं के पाले हुए तो हैं, गर या नहीं तो यहाँ से निकाले हुए तो हैं” ये वो दौर था जब अँगरेज़ी हुकूमत की भारत से विदाई हुई थी और भारत ने आज़ादी का नया सवेरा देखा था, साथ ही यह देश दो टुकड़ों में बांटे जाने का दंश भी झेल रहा था। तब साहिर ने पाकिस्तान में ही रहने का फैसला किया और उनकी लेखनी साम्प्रदायिकता के खिलाफ आग उगलने लगी । उनकी कलम की धार को ज़्यादा समय तक पाकिस्तान झेल ना सका और वर्ष १९४९ में साहिर के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी हो गया। साहिर पाकिस्तान छोड़ दिये और दिल्ली चले आए। चंद महीनों बाद हीं उन्होंने अपने सपनों के साथ मुम्बई का रुख किया। यहां उन्हें नया नाम मिला साहिर लुधियानवी। वर्ष 1950 में “आजादी की राह पर” फिल्म में उन्हें पहला गीत लिखने का मौक़ा मिला, हालांकि इस फिल्म को सफलता नहीं मिल सकी। दो साल में ही उन्हें फिल्म नौजवान में गीत लिखने का मौक़ा मिला, जिसके संगीतकार थे “एस डी बर्मन”, इस फिल्म के गीतों ने मायानगरी में उनकी पहचान पुख्ता कर दी। फिल्म बाज़ी भी इसी साल आयी, जिसके सभी गीत लोगों की जुबां पर चढ़ गए। मायानगरी ने साहिर को अपना लिया। उनकी जोड़ी संगीतकार “एस डी बर्मन” के साथ चल निकली। इस जोड़ी ने एक के बाद एक कई सुपरहिट गाने दिए। साहिर के दोस्त और उनकी पुस्तकों के प्रकाशक अमरनाथ वर्मा बताते हैं कि साहिर दोस्तों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहते थे। साहिर लुधियानवी की अपने पिता से कभी बनी नहीं। उनकी माँ और पिता के बीच उनके बचपन में ही अलगाव हो गया था और साहिर माँ के साथ रहना कबूल किये। साहिर का अपनी माँ के साथ इंतिहाई जज़्बाती और नज़दीकी लगाव था। उन्होंने अपनी माँ के लिए एक नज़्म भी लिखी। साहिर लुधियानवी ऐसे गीतकार हुए जिन्होंने अपने उसूल से कभी समझौता नहीं किया। उन्होंने हमेशा गीत के बोलों को बेहद महत्वपूर्ण माना। एक बार एक फिल्म निर्माता ने संगीत निर्देशन में उनसे से गीत लिखने की पेशकश की। साहिर को जब इस बात का पता चला कि संगीतकार को उनसे अधिक पारिश्रमिक दिया जा रहा है तो उन्होंने निर्माता को अनुबंध समाप्त करने को कहा। उनका कहना था कि धुनों को शब्द ही वजनी बनाते है। अत: एक रुपया ही अधिक सही गीतकार को संगीतकार से अधिक पारिश्रमिक मिलना चाहिये। वर्ष 1958 में प्रदर्शित फिल्म “फिर सुबह होगी” के लिये उन्होंने राजकपूर से कहकर संगीतकार बदलवाया। “वो सुबह कभी तो आयेगी” गीत की कामयाबी से साहिर का निर्णय सही साबित हुआ। साहिर अपनी शर्तो पर गीत लिखा करते थे। शब्दों में गुथी उनकी संवेदनशीलता ने उन्हें एक फनकार… एक गीतकार… एक शायर के तौर पर लोगों के दिलों में जगह दी। गुरूदत्त की फिल्म “प्यासा” साहिर के सिने करियर की अहम फिल्म साबित हुई। कहते हैं फिल्म के प्रदर्शन के दौरान मुंबई के मिनर्वा टॉकीज में “जिन्हे नाज है हिंद पर वो कहां है” गीत के समय सभी दर्शक अपनी सीट से उठकर खड़े हो गये और गाने की समाप्ति तक ताली बजाते रहे थे। बाद में दर्शकों की मांग पर इसे तीन बार और दिखाया गया। फिल्म इंडस्ट्री के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ था। फिल्मी नज़्म और साहित्य को लेकर तब भी कई तरह की बातें होती थीं कुछ साहित्यकार इन्हें साहित्य से इतर मानते थे, तो कुछ इसे साहित्य ही मानते थे।तब साहिर लुधियानवी ने 1970-75 में एक लेख में लिखा “एक उर्दू नग़मा निगार को वह आज़ादी हासिल नहीं होती जो एक अदबी शायर को होती है। नग़मा निगार को हर हाल में ड्रामा की हद में रहना पड़ता है। मेरी हमेशा से ये कोशिश रही है कि जहां तक मुमकिन हो फ़िल्मी नग़मों को तखलीकी शायरी के करीब ला सकूँ और इस सिन्फ़ के ज़रिये जदीद समाजी और सियासी नज़रिये अवाम तक पहुंचा सकूँ।” साहिर की ज़ुबान, साहिर की नज़्म, साहिर के गीत, साहिर की कहानियां, पीढ़ियों को आह्लादित करती रही हैं। लोगों के लिए जितना प्रिय उनका लेखन रहा उतना ही आकर्षक उनका व्यक्तित्व भी था। ख्वाजा अहमद अब्बास लिखते हैं “साहिर जादूगर को कहते हैं। इसलिए जब लुधियाना के अब्दुल हई ने साहिर तख़ल्लुस अख्तियार किया तो वाकई जादू जगा दिया।” वे आगे लिखते हैं “ साहिर हर लिहाज़ से एक ऐसा इंसान था जो इंसान से मुहब्बत करता था, इंसान की इज्जत करता था और इंसान की सब अच्छाइयां और कमज़ोरियाँ उसके अंदर मौजूद थीं।” 1970 में कॉलेज की गोल्डन जुबली समारोह के मौके पर साहिर को एक बार फिर से कॉलेज में बुलाया गया और साथ ही उन्हें स्वर्ण पदक से सम्मानित भी किया गया। इसी दौरान उन्होंने “अये नयी नस्ल” कविता लिखी और उसका पाठ किया। तब तक साहिर चर्चित नाम हो चुका था। साहिर की लोकप्रियता का आलम ये है कि आज तक उनपर, उनकी शायरी, ग़ज़लों और नज़्मों पर पुस्तकें लिखीं जा रही हैं। उनके अधिकांश हिंदी गीतों में मखमली मुलायम शब्द मोहब्बत का हसीन एहसास लिए होते हैं। फिल्मी गानों में उर्दू शायरी को उन्होंने जो स्थान दिया वह किसी और गीतकार के लिए संभव नहीं था। उनके किस्से भी उनके गीतों की तरह ही रुमानियत से भरे थे। सुप्रसिद्ध पंजाबी लेखिका अमृता प्रीतम के ज़िक्र के बगैर साहिर की चर्चा अधूरी है। साहिर अपने सिने करियर में दो बार सर्वश्रेष्ठ गीतकार के फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किये गये। उन्हें 1971 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। लगभग तीन दशक तक हिन्दी सिनेमा को अपनी रूमानी और जज़्बाती गीतों से सराबोर करने वाले साहिर लुधियानवी 25 अक्टूबर 1980 को इस दुनिया को अलविदा कह गये। © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Comments

Popular posts from this blog

हुंकार से उर्वशी तक...(लेख )

https:// epaper.bhaskar.com/ patna-city/384/01102018/ bihar/1/ मु झसे अगर यह पूछा जाए कि दिनकर की कौन सी कृति ज़्यादा पसंद है तो मैं उर्वशी ही कहूँ गी। हुंकार, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी जैसी कृति को शब्दबद्ध करने वाले रचनाकार द्वारा उर्वशी जैसी कोमल भावों वाली रचना करना, उन्हें बेहद ख़ास बनाती है। ये कहानी पुरुरवा और उर्वशी की है। जिसे दिनकर ने काव्य नाटक का रूप दिया है, मेरी नज़र में वह उनकी अद्भुत कृति है, जिसमें उन्होंने प्रेम, काम, अध्यात्म जैसे विषय पर अपनी लेखनी चलाई और वीर रस से इतर श्रृंगारिकता, करुणा को केंद्र में रख कर लिखा। इस काव्य नाटक में कई जगह वह प्रेम को अलग तरीके से परिभाषित भी करने की कोशिश करते हैं जैसे वह लिखते हैं - "प्रथम प्रेम जितना पवित्र हो, पर , केवल आधा है; मन हो एक, किन्तु, इस लय से तन को क्या मिलता है? केवल अंतर्दाह, मात्र वेदना अतृप्ति, ललक की ; दो निधि अंतःक्षुब्ध, किन्तु, संत्रस्त सदा इस भय से , बाँध तोड़ मिलते ही व्रत की विभा चली जाएगी; अच्छा है, मन जले, किन्तु, तन पर तो दाग़ नहीं है।" उर्वशी और पुरुरवा की कथा का सब

यादें ....

14 फरवरी - प्रेम दिवस...सबके लिए तो ये अपने अपने प्रेम को याद करने का दिन है,  हमारे लिए ये दिन 'अम्मा' को याद करने का होता है. हम अपनी 'दादी' को 'अम्मा' कहते थे- अम्मा के व्यक्तित्व में एक अलग तरह का आकर्षण था, दिखने में साफ़ रंग और बालों का रंग भी बिलकुल सफेद...इक्का दुक्का बाल ही काले थे... जो उनके बालों के झुरमुट में बिलकुल अलग से नजर आते थे. अम्मा हमेशा कलफ सूती साड़ियाँ ही पहनती.. और मजाल था जो साड़ियों की एक क्रिच भी टूट जाए। जब वो तैयार होकर घर से निकलती तो उनके व्यक्तित्व में एक ठसक होती  । जब तक बाबा  थे,  तब तक अम्मा का साज श्रृंगार भी ज़िंदा था। लाल रंग के तरल कुमकुम की शीशी से हर रोज़ माथे पर बड़ी सी बिंदी बनाती थी। वह शीशी हमारे लिए कौतुहल का विषय रहती। अम्मा के कमरे में एक बड़ा सा ड्रेसिंग टेबल था, लेकिन वे कभी भी उसके सामने तैयार नही होती थीं।  इन सब के लिए उनके पास एक छोटा लेकिन सुंदर सा लकड़ी के फ्रेम में जड़ा हुआ आईना था।  रोज़ सुबह स्नान से पहले वे अपने बालों में नारियल का तेल लगाती फिर बाल बान्धती।  मुझे उनके सफेद लंबे बाल बड़े रहस्यमय

जो बीत गई सो बात गई

"जीवन में एक सितारा था माना वह बेहद प्यारा था वह डूब गया तो डूब गया अम्बर के आनन को देखो कितने इसके तारे टूटे कितने इसके प्यारे छूटे जो छूट गए फिर कहाँ मिले पर बोलो टूटे तारों पर कब अम्बर शोक मनाता है जो बीत गई सो बात गई " शायद आठवीं या नौवीं कक्षा में थी जब ये कविता पढ़ी थी... आज भी इसकी पंक्तियाँ ज़ेहन में वैसे ही हैं।  उससे भी छोटी कक्षा में थी तब पढ़ी थी - "आ रही रवि की सवारी। नव-किरण का रथ सजा है, कलि-कुसुम से पथ सजा है, बादलों-से अनुचरों ने स्‍वर्ण की पोशाक धारी। आ रही रवि की सवारी।" बच्चन जी की ऐसी न जाने कितनी कविताएँ हैं जो छात्र जीवन में कंठस्थ हुआ करती थीं। संभव है इसका कारण कविताओं की ध्वनि-लय और शब्द रहे हों जिन्हें कंठस्थ करना आसान हो। नौकरी के दौरान बच्चन जी की आत्मकथा का दो भाग पढ़ने को मिला और उनके मोहपाश में बंधती चली गयी। उसी दौरान 'कोयल, कैक्टस और कवि' कविता पढ़ने का मौका मिला। उस कविता में कैक्टस के उद्गार  - "धैर्य से सुन बात मेरी कैक्‍टस ने कहा धीमे से, किसी विवशता से खिलता हूँ,