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नीला गुलमोहर (कहानी)




1.


मौसम बदलने लगा है। मौसम बदलने का पता तब चलता है जब खरीदारों की फूलों को लेकर पसंद बदलने लगती है, जैसे अक्टूबर-नवंबर में पिटूनिया, कैलेंडुला, गेंदा के खरीदार बढ़ जाते हैं तो गर्मियों में उड़हुल, सूरजमुखी, डहेलिया को खरीदने वालों की तादाद बढ़ जाती है।  कुछ फूल सालों भर बिकते हैं तो कुछ मौसमानुसार। यूँ तो मुझे सभी मौसम पसंद है,  पर बरसात और बसंत विशेष प्रिय है। ये मौसम होते हैं जब फूलों की महक सारे गिले-शिकवे, दुःख-कष्ट से हमें दूर ले जाती है। जिन पौधों में साल के अन्य महीनों में फूल नहीं लगते हों वे भी इन महीनों में पल्लवित-सुभाषित हो उठते हैं। रंग-बिरंगे फूलों को देख कितनी ही कल्पनाएं साकार हो उठती हैं। ये फूल कभी झालर तो कभी कंगूरे, कभी बिंदिया तो कभी झुमके से दिखते हैं। बचपन में बड़ी पत्तियों वाले फूलों को नाखून पर लगाकर उन्हें किनारे से बारीकी से कुतरकर नेल पॉलिश-सा सजाकर कितना आनंद आता था। कनेर के पीले-गुलाबी फूलों को उंगलियों में लगाकर लंबे नाखूनों की चाहत पूरी हो जाया करती थी।  रंग छोड़ते लाल-गुलाबी छोटे-छोटे नौ-बजिया और दस-बजिया फूलों को गालों-होठों  पर रगड़कर लिपस्टिक और लाली की तरह लगा लिया करती थी। 

अब पहले सा उत्साह नहीं रहा किंतु उनके साथ मैं आज भी अपना बचपन जीती हूँ। अपना अकेलापन बांटती हूँ- 


'I've a bunch of vine

And some columbine

For Wine and Youth and Folly--

But the flower for me

(And perhaps for thee?)

Is the rue of melancholy!'

कुछ पंक्तियां मन के ज़हर को शब्द दे देती हैं। केनेथ रैंड की ये पंक्तियां अक्सर मन के विषैले एहसास को तेज़ कर देती हैं। इस ज़हर के साथ मैं अकेले कैसे जी सकती हूँ? मेरे जीवन के सच्चे साथी, मेरे सहचर तुम दोनों ही तो हो - एक तुम यानी मेरी प्रिय डायरी, जिससे मैं हर बात कह सकती हूँ। अपनी खुशियां अपने दर्द सबकुछ बांट सकती हूँ और दूसरी तुम मेरी प्यारी सी बगिया और उससे जुड़ी ये नर्सरी। चंपा, चमेली, बेला, मोगरा, गुलाब, गेंदा, रातरानी ये सभी मुझे हर गम से दूर कर देती हैं और मेरा खर्च भी वहन करती हैं। इनकी उपस्थिति से जिंदा होने का एहसास होता है। ये मेरे अकेलेपन की साथी हैं। इनकी आपस की गुफ्तगू में यदा-कदा मैं भी शामिल हो जाती हूँ।

मैं कभी नहीं चाहती कि अतीतजीवी बनूँ, पर यही तो मेरी पूंजी है, मेरा खजाना, जीने का बहाना। मेरा छुटपन, बाबू-माँ...मैं आज भी उसी समय में जी रही हूँ। बाबू के साथ मैं प्यासे पौधों को पानी पिलाया करती थी और अक्सर उन से पूछ बैठती ये कुछ खाते क्यों नहीं? ये ज़िंदा हैं तो चलते क्यों नहीं, बोलते क्यों नहीं? सिर्फ पानी क्यों पीते हैं? एक दिन बाबू ने 'जगदीश चंद्र बोस' की कहानी सुनाई। 'पौधों में संवेदना होती है। वे भी हमारी-तुम्हारी तरह दर्द महसूस करते हैं।' यह समझाया। बाल मन...जिज्ञासा सर चढ़ कर सवाल पर सवाल किए जा रही थी, तब मां ने माथा चूमते हुए पौधों से बातचीत करने का सलीका सिखाया। उस बात का असर ये हुआ कि मैं उन पौधों से बातें करने लगी। हवा के झोंके आते तो ‘हां-ना’ में उनका जवाब भी मिल जाता और मैं खुश हो जाती। अच्छे लोग, अच्छा वक्त कहाँ टिकता है? मेरा बचपन भी मेरे साथ कम दिनों तक रहा। 

आह! पुराने दिनों को याद कर आंखों और मन को क्यों सुजाना, इसलिए आज की बात। इन दिनों मैंने मोगरे के कई पौधे लगाए हैं, उनकी मांग भी ज़्यादा है। इन सब की देखभाल में ही समय गुज़र जाता है। मैं बेसब्र प्रत्येक पौधे को तुरंत फुलाते देखना चाहती हूं।  नए पौधे आए नहीं कि बस उनमें फूल लग जाए। "समय पाए तरुवर फले, केतक सींचो नीर" वाली बात मेरे दिल को मंजूर नहीं। हर परिणाम मुझे तुरंत चाहिए, जबकि दिमाग यह जानता है कि मोगरे में फूल इतनी जल्दी और आसानी से नहीं आते हैं। उनकी देख-रेख घर के सदस्य की तरह करनी पड़ती है। मोगरे ही क्यों किसी भी पौधे में इतनी आसानी से फूल लगते हैं क्या? उन्हें हमारे स्नेह के साथ ही देखभाल की ज़रूरत तो पड़ती ही है। अगर एक दिन भी लापरवाही हुई तो वे नाराज़ हो जाते हैं...पौधों को नाराज़ होते देखा है कभी? हां… जैसे वे बतियाते हैं वैसे ही प्रेम भी जताते हैं और नाराज़ भी होते हैं। सारा दिन उनके साथ गुज़रता है, किंतु, किंतु नींद में फिर वही नीला गुलमोहर ...क्या करूँ? किससे कहूँ? कोई नहीं समझेगा। 

2. 

आज मेरी मेहनत सफल हुई। मोगरे में बहुत सारी कलियां लगी हैं। कलियों को फूल बनते देखना सुकून देता है...आंखों को भी और मन को भी। यूँ तो इन दिनों कई तरह के फूल खिलने का मौसम है, मगर इस मोगरे से विशेष लगाव हो गया है। सारा-सारा दिन इनसे बतियाती रहती हूँ। ये भी जवाब में मुस्कुराते हैं कभी-कभी ज़ोर से खिलखिलाते हैं। जाने कितनी कहानियां मैंने इन्हें सुनाई है और इसने भी अपनी सहमति-असहमति जताई है। बगिया के बीच में एक छोटा सा तालाब भी बना रखा है जिनमें कमल के बीज पड़े हैं। बगिया को मधुकामिनि की झाड़ियों ने चहारदीवारी की तरह घेर रखा है। बोगेनवेलिया और मधुमालती के फूल तो सालों भर यहां खिले रहते हैं। ये मधुमालती तो बचपन से मेरे साथ है।  ये सभी फूल मेरे सच्चे साथी हैं ...फिर वो नीला गुलमोहर ...सपने में सिर्फ वही क्यों आता है? दिन भर इन फूलों के संग रहती हूँ पर ये मेरे सपने में नहीं आते, आता है तो बस वही नीला गुलमोहर! उसे कब देखा मैंने? याद क्यों नहीं आता? अवचेतन में वह कब दाखिल हुआ? चेतन ने रोका क्यों नहीं? यह कैसा खेल रचाया तूने मेरे मालिक?  

3.

आह! आज सुबह मोगरे की कलियां ज़मीन पर बिखरी पड़ी थीं। उन्हें बेदर्दी से मसला गया था। उनकी एक-एक पंखुड़ियों को नोच कर मसल डाला था बंदरों ने। ये उत्पाती, अराजक...इनमें ज़रा सी भी संवेदना नहीं? संवेदना तो सभी जीवित में होती है। इंसान में भी होती है...पुरुषों में भी होती है,  फिर भी इन जैसे ही कुछ अराजक नन्ही कलियों को मसलते हुए कब दुखी होते हैं? इन कलियों के मसले जाने का दर्द कौन समझ सकता है? 

तब मेरा दर्द...किसने समझा था? उन दिनों मैं भी ऐसी ही नन्ही कली थी? उफ्फ! मेरी सोच...इन दिनों मैं अपनी ही सोच से परेशान हो जाया करती हूँ।

आंखों की कोर पर कुछ बूंदें लटक आई हैं और मैं उन बूंदों को उंगलियों पर हौले से उतार लायी और उन्हें देखने लगी... बिल्कुल मोती सरीखी। सेकंड भी नहीं बीता और वे बूंदें भरभरा गईं। 

सब कुछ व्यवस्थित करने के बाद मैंने उन कलियों को अपनी ओक में उठाया, चूमा और उन बंदरों की हरकतों के लिए माफी मांगी। अपने आप में बुदबुदाई "जीवन देना और लेना तो ईश्वर के हाथ में है।" मैं ईश्वर नहीं थी...उन कलियों को जीवन दान नहीं दे सकी… हं, यानी ईश्वर होती तो जीवन दान दे देती? तो क्या ईश्वर मृत को जीवित कर सकते हैं? धत्त वे इस दुनिया में है ही नहीं, तब ही तो मरे लोग वापिस नहीं आते? मेरे बाबू और मां भी तो वापिस नहीं आ सके! ईश्वर होते तो ज़रूर रहम करते उस छोटी बच्ची पर जिसे अभी दुनिया देखनी थी, दुनियादारी सीखनी थी। उहुँ! मोगरे की मसली कलियों ने तो ईश्वर की उपस्थिति पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया! मृत्यु शाश्वत है, जानती तो हूँ, फिर कैसी जिरह? सावित्री अपने पति सत्यवान को यमराज से छीन कर वापिस कैसे ला सकी थी? प्रेम के कारण? प्रेम और सत्य तो एक ही है और अगर यह सत्य है तो क्या हीर ने रांझे से या कि टेसू ने झेंझी से कम प्रेम किया था? 

धत्त! इन दिनों सवाल आषाढ़ के बादल हो गए हैं। हर घड़ी घुमड़ते रहते हैं। जब इन घुमड़ते बादलों से निजात पाती हूँ तो नीला गुलमोहर...उसके सपने व्यग्र कर देते हैं। डॉक्टर ने यह कहा था कि बुरे सपने आएंगे, आते रहेंगे, कुछ सपने बार-बार आएंगे, उन्हें डायरी में लिख लेना..पर उन सपनों से भला एक वृक्ष का क्या संबंध? 

4

ये मेरे जीवन का स्याह सच है। एक अंधेरा कोना जिसे मैंने हमेशा डायरी के पन्नों में छिपा कर रखा।  जब सबकुछ गुलाबी हुआ करता था, तब भी मेरे लिए ये दुनिया बेरौनक ही थी। वह नीला गुलमोहर...सबसे अलग...सबसे अनोखा। जब यहां से वहां तक अमलताश के पीले कंगूरे बिखरे होते, नीला गुलमोहर बेनूर खड़ा रहता। जब गुलमोहर के वृक्ष अपनी चम्पई मुस्कान बिखेरते नीला गुलमोहर उदास अपने आप में ही उलझा रहता और जब, सब सूख कर बिखरने को आतुर होते, वह झूमता खड़ा हो जाता।

प्रेम रहस्यों से भरा होता है न! मेरा प्रेम भी एक रहस्य ही था। वह मेरे जीवन का, मेरे चेतन-अवचेतन मन का यथार्थ बन चुका था। जितना भूलना चाहती उसे, उतना ही वह परेशान करता। हर रोज़ अपनी शाखों को फैलाए जैसे मेरा ही इंतज़ार कर रहा हो। पास पहुंचते ही अपने नीले-बैंगनी फूलों के गुच्छे ऐसे बरसाता जैसे कि लंबे बिछोह के बाद किसी प्रिय से मिलना हुआ हो। माथे पर, बालों में, गालों पर, उसके फूल चुम्बन से झरते। वह हमारे इन लम्हों को यादगार बना देना चाहता था। उस क्षण अम्बर सिर से सिर्फ एक हाथ ऊपर होता कि उचककर उसे मैं छू सकती थी। बस यहीं आकर मेरी नींद उचट जाती। इस सपने को मैं जितना डिकोड करने की कोशिश करती और उलझती जाती। उस नीले गुलमोहर की खोज में मैं अक्सर भटकती रहती, किंतु वह रोमान, सपने वाला वह नीला गुलमोहर कहीं नहीं दिखता। मैं ऐसी सफ़ीना बन चुकी थी जो तूफान में अपना रास्ता भटक गयी हो। जो हर रात सपने में अपने उस घर को देखती पर वहां पहुंचने का रास्ता उसे नहीं सूझता। मुझे चेतना का वह स्तर चाहिए था जिससे इस सपने का रहस्य समझ सकूं, उसकी हकीकत जान सकूं। आखिर क्यों देखती हूँ वही एक सपना लगातार, बार-बार? ज़िन्दगी में कितना कुछ अबूझ रह जाता है और इंसान व्यर्थ भटकता रहता है।  

अवचेतन में बैठी घटनाएं अक्सर सपने का कारण बनती हैं। तो क्या मेरे जीवन से यह नीला गुलमोहर किसी तरह जुड़ा हुआ था? यह भी एक सच है कि चेतन मन जो स्वीकार करता है अवचेतन बिना बहस उसे सच मान बैठता है। मेरे अवचेतन में वह कब से बैठा था मैं समझ नहीं पा रही थी। इसी उहापोह में हर रोज़ घण्टों सपने और उसके मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर गूगलिंग करती। उससे संबंधित पुस्तकें पढ़ती। उससे जो निष्कर्ष निकलता मन को संतुष्टि नहीं मिलती। जब सवालों के जवाब नहीं मिल पाते तब उन्हें पाने की बेचैनी ज़्यादा ज़ोर मारने लगती है।  सपना-यथार्थ-यथार्थ-सपना इनमें फर्क करना धीरे-धीरे मैं भूलती जा रही थी। मेरी जिंदगी में सिर्फ दो लोग ही थे एक मैं और दूसरा वह नीला गुलमोहर। ऐसा नहीं था कि इस सपने से मुक्ति पाने की मैंने कोशिश नहीं की थी। कहीं पढ़ा था कि मानव शरीर का हर 11 महीने में नवीकरण होता है यानी अपने अंदर के टॉक्सिक को हम निकालना चाहें तो यह मुश्किल नहीं। अपने विचारों को हम अपनी इच्छानुसार मोल्ड कर सकते हैं। इस कोशिश में मैंने जाने कितनी बार अपने अवचेतन को समझाने की कोशिश की कि ऐसा कुछ भी नहीं है। यह मात्र एक कल्पना है, पर मन था कि मेरी किसी बात को नहीं मानता था। फिर-फिर वही सपना आता और नीले गुलमोहर की तलाश में भटकना शुरू हो जाता। 

5

मेरी स्याह ज़िन्दगी में वह देवदूत बनकर आया। मुझे जीना सिखाया। हाथ पकड़कर आगे बढ़ने में मेरी मदद की। जीवन के सुनहरे सपने दिखाए। धीरे-धीरे नीले गुलमोहर की जगह 'उसके' द्वारा दिखाए गए सपने मेरी नींद का हिस्सा बन गए। मैं अब खुश रहने लगी थी। मेरे जीवन का अंधकार अब सतरंगी किरणों से रौशन हो रहा था। मेरी सारी उलझने सुलझने लगी थीं। मैंने मान लिया था वह नीला गुलमोहर यही देवदूत रहा होगा, जिसे मैं सपने में देखा करती थी। मेरी त्रासद ज़िंदगी अब समान्य होने लगी थी। उसने मेरी ज़िंदगी में सारे रंग भर दिए। उसने मुझे परवाज़ की कला सिखाई, आगे बढ़ना सिखाया, स्वावलंबन का पाठ पढ़ाया। भाभी मां ने तब इस रिश्ते के लिए मुझे टोका था, किंतु मैं बावरी उन्हें ही गलत ठहरा दी। उसके बाद उन्होंने कभी मेरे किसी मामले में दखलंदाजी नहीं की (हाँ, इसका असर ये हुआ कि धीरे-धीरे उनका घर पर आना कम हो गया)।

जब मैंने अपने बूते जीना शुरू किया तो यह उस देवदूत को रास नहीं आया। मेरी जिंदादिली, मेरी हँसी, मुझे, मेरी रूह तक को वह सात तालों में इस कदर कैद करना चाहता था कि किसी और कि नज़र न पड़े। वह भूल गया था कि शरीर को कैद कर सकता है आत्मा को भला कैसे रोक सकता है? धीरे-धीरे यूँ हुआ कि एक बार फिर मैं और मेरे सपने जीवन के बुरे दौर से गुज़रने लगे। उसके चेहरे से अच्छाइयों का मुखौटा धीरे-धीरे उतरने लगा। एक दिन वह पूरी तरह पिशाच बन गया। मैंने पूरी ताक़त लगाई कि उस पिशाच की पहुंच से दूर...बहुत दूर चली जाऊं, पर भाग नहीं सकी। मेरा औचित्य उसके लिए सिवाय एक देह के कुछ भी नहीं था। उसे सबकुछ आसानी से हासिल था। ये घर, दौलत, मेरी नर्सरी और मैं। उसने मुझे कभी खुद में शामिल नहीं किया, मैंने भी ज़ोर नहीं दिया। उसे देह चाहिए था और मुझे प्यार। हम दोनों एक दूसरे की ख्वाहिश पूरी करते रहे। जिस रिश्ते को सबके सामने बताया नहीं जा सकता वह सिवाय धोखा के और कुछ नहीं होता। एक दिन मैंने उससे अपना हक मांगा। लहालोट होकर उसने कहा "स्त्रियां जी बहलावन होती हैं, बिल्कुल  कठपुतली जैसी और तू तो जानती है कठपुतली से बस एक ही रिश्ता हो सकता है।" कुछ बदनसीब  ताउम्र दुख की गठरी का बोझ उठाए फिरती हैं। मैं भी उन्हीं बदनसीबों में से हूँ। बचपन, बचपन में ही भाप बनकर उड़ गया था और ये समय काटे नहीं कट रहा।

एक दिन वह मेरी ज़िंदगी से हमेशा के लिए चला गया। कई दिनों तक मैं सो नहीं पाई। जब कभी नींद पलकों पर अंगड़ाई लेती देवदूत को पिशाच में बदलते देखती और फिर अंगड़ाई डर में बदल जाती। मैं अवसाद में जीने लगी थी।    

6

सपने भी अजीब होते हैं। उन पर अपना नियंत्रण कहाँ होता? जिससे वर्षों से नहीं मिलो, मिलने के आसार भी नहीं हो वह अचानक सपने में दिख जाता है। महीनों बाद वह नीला गुलमोहर फिर दिखा। उदास था। कुछ कहना चाहता था। बोल सकता होता तो शायद वह बोल भी पड़ता या हो सकता है बोला भी हो, मैं ही नहीं सुन पाई। धीरे-धीरे फिर से नीला गुलमोहर मेरे सपनों में आने लगा। मैं वापिस उसके एहसास पर न्यौछावर होने लगी। मैंने उसकी तलाश में भटकना बन्द कर दिया और सपने में ही जीने लगी। जब वह हवा में झूमता मुझ पर फूल बरसाता, अपने शाखों, पत्तियों से मुझे सहलाता, मुझे आनंद आता। उस थोड़ी सी देर के लिए में जीवन की सारी उदासी भूल जाती। अवसाद जब आत्महत्या के लिए उकसाता, प्रकृति मुझे जीना, प्रेम करना सिखाती। एडलर कहता है कि जिस व्यक्ति में जिस चीज़ की कमी होती है वह उसके विपरीत रूप अपने आस-पास रचता है, ताकि खुद को और दूसरों को भी भुलावे में रख सके। कहीं मैं भी किसी हीनता ग्रंथी से तो पीड़ित नहीं? 

      7

भोर की पहली किरण सीधी मेरे बिस्तर पर पड़ती है। मैंने खिड़कियों पर पर्दे लगाने बन्द कर दिये हैं। चिड़ियों की पहली चहचहाहट से नींद खुलती है। पौ फूटते देखने का सुख सबसे अलग है। जीवन मे फिर से सकारात्मकता आने लगी है। रश्मियों की झालरों को घण्टों टकटकी लगाए देखती हूँ, जैसे कि ध्यानमग्न ही हो गयी हूँ। सामने बगीचे में नर्म घास रात भर आसमानी बूंदों को अपनी ओक में पनाह देती है। सुबह उन ठंडी बूंदों को आंखों से लगाना सुकून और ताजगी से भर देता है। जीवन के झंझावातों से आगे बढ़ चुकी हूं।   मधुकामिनी की झाड़ियों ने मेरी छोटी सी बगिया को सुरक्षा कवच की तरह घेर लिया है। अमलताश, हरसिंगार, गुलमोहर, चंपा… के साथ ही अब मैंने नीले गुलमोहर को भी अपना साथी बना लिया है। नन्हा पौधा जल्दी ही वृक्ष बन जाएगा...फिर शायद सपने से भी निजात मिल सके।

     8

पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर...हां। डॉक्टर ने इस बीमारी का नाम यही बताया है। शरीर और मन की हर अब्नॉर्मलिटी एक बीमारी है! सपने नहीं देखना बीमारी, बार-बार एक ही सपने देखना बीमारी, चाहना बीमारी, कोई चाह नही रखना भी बीमारी। ज़रूरत से ज़्यादा उदासी बीमारी, और उच्श्रृंखलता भी एक बीमारी। जब जीवन में कुछ भी अच्छा न हो तो मन स्वस्थ कैसे रहे भला?

मां-बापू बचपन में अकेला छोड़कर चले गए। जिसने मुझे पालने का भरोसा दिलाया...उसने…! 'भरोसा'....हुंह! मुंह का स्वाद कसैला हो आया है। दरअसल ये भरोसा तो उस गैस भरे गुब्बारे की तरह होता है, सावधानी से पकड़े रहो तो सब ठीक, ज़रा सा दबाव पड़ा या हाथ से छूटा तो उड़न-छू।  

मां-बापू के जाने के बाद दूर के रिश्तेदार, अंकल, अपने परिवार के साथ घर पर रहने के लिए आ गए। मैं छोटी थी, मुझे बस ये एहसास था कि मेरे बाबू और माँ अब कभी वापिस नहीं आएंगे। घर पर कदम रखते ही उनका विलाप शुरू हुआ   "इतनी छोटी बच्ची अनाथ हो गई। इतनी बड़ी दुनिया में अकेले कैसे रहेगी?" मां-बाबू के दशकर्म के बाद उनकी यही चिंता उन्हें मेरे साथ रहने के लिए विवश कर दी। मुझसे बड़ी उनकी एक बेटी थी। उन सब का साथ मुझे अच्छा लगने लगा था। दीदी के साथ मैं खेलती थी। छीतीतीति और गोटी खेलना मैंने उन्हीं से सीखा था। धीरे-धीरे वे मेरे अभिभावक बन बैठे। सौ पाबंदियां, बात-बात पर झिड़की, अपने ही घर में मैं पराई बनने लगी। दादा और भाभी मां को भी कई बार डांट कर घर से चले जाने को कह देते। अंकल का चेहरा, उनकी आंखें मुझे डरावनी लगने लगी थीं। अनाथ बच्ची वह भी जिसके पास प्रॉपर्टी हो, मोटा बैंक एकाउंट हो, रिश्तेदारों के नज़र की किरकिरी बन ही जाती है।  

अगर उस रात उस वृक्ष ने पनाह नहीं दी होती तो मैं भी आज मां-बाबू के पास होती। अच्छा होता कम से कम इस त्रासद जीवन से तो छुटकारा पाती! ऐसे रिश्तेदारों से तो दादा अच्छे हैं जो बाबू के साथ भी साये की तरह रहे और उनके बाद मेरे साथ बाबू की तरह आज भी हैं। मैं हर बात, सारी ज़रूरतें उनसे या भाभी मां से कहती। उनका मुझसे या बाबू से कोई खून का रिश्ता नहीं था। बाबू ने उन्हें पढ़ना-लिखना सिखाया। उनकी नौकरी लगवाई और उन्हें रहने के लिए जगह दिलवाई। दादा ने कभी अपने परिवार-रिश्तेदारों के बारे में बताया नहीं, ना ही बाबू ने पूछा। दादा के लिए तो हम तीनों ही उनके परिवार थे।  उन्होंने अपनी मेहनत और लगन से हर वह चीज़ जुटाई, जिसकी अच्छी ज़िन्दगी जीने के लिए एक इंसान को ज़रूरत होती है। अपनी पसंद की लड़की से ब्याह भी रचाया, उन्हें मैं भाभी मां कहती हूँ। ब्याह में भी दादा के परिवार की ओर से हम तीन ही शामिल हुए थे।  

क्या-क्या लिखूं…. उनकी वजह से ही तो उस रात मैं बच सकी थी! नर्म ठंड का मौसम था और रात भर निर्वस्त्र पेड़ के पीछे अचेत पड़ी रही थी मैं। आह! दादा सुबह मुझे ढूंढते हुए वहां पहुंचे थे और अपने गमछे में लपेट कर मुझे अपनी गोद में उठाकर भागते हुए घर लाए थे। मुझे इस हालत में देख कर अंकल का चेहरा सफेद पड़ गया। आँटी ने कहा "डॉक्टर को दिखा लेना चाहिए, सब ठीक तो है….कहीं कुछ… !" अंकल ने उन्हें डांटते हुए कहा "चोप्प। एकदम चुप्प। तुम औरतों को कभी कोई अच्छी बात भी सूझती है? कुछ नहीं हुआ इसे। गई होगी उस गुलमोहर के पेड़ पर बया का घोसला देखने। गिर गई होगी। अंधेरे में डर से बेहोश हो गई होगी। इसको गुनगुने पानी से स्पॉन्ज बाथ देकर कपड़ा पहनाओ ठीक हो जाएगी।" आँटी ने बोला "...पर कपड़े?" अंकल ने उनकी बातों का कोई जवाब नहीं दिया और मुझसे बोले "बोल बेटा क्या खाएगी, आज सब तेरी पसंद की चीज़ें आएंगी, मेरी अच्छी बेटी, सबसे प्यारी बेटी। मैं तो तेरा सबसे अच्छा वाला अंकल हूँ न?" मेरी आँखें बंद थीं, पर कोने से गर्म पानी ढुलक आया। जैसे शंख को फूंकने से पहले आचमन करते हुए उसके कोने से पानी निकालते हैं, बिल्कुल वैसे ही। आँटी ने गर्म पानी से मेरे पूरे शरीर को पोंछा और कपड़े पहनाए। उस दिन मुझमें चलने की भी ताकत नहीं थी। मैंने भाभी मां को सबकुछ बता दिया। वह अवाक मुझे देखती रह गई फिर उन्होंने समझाया "भूल जाओ किसने क्या किया बबी। आदम जात होता ही ऐसा है, पेट कभी नहीं भरता। अपने दादा को मत बताना, नहीं तो वह उसकी गर्दन काट देंगे।" सात या आठ साल की बच्ची के लिए गर्दन काटने की बात डराने वाली ही थी सो मैंने दादा को कुछ नहीं बताया। हाँ भाभी माँ ने अंकल को परिवार सहित घर से निकाल बाहर कर दिया और धमकी दी कि दुबारा यहां दिखाई दिए तो पुलिस कंप्लेन कर देंगी। घर में फिर से एक अकेलापन तारी हो गया।धीरे-धीरे मुझे अकेले रहने की आदत हो गई। 

अब तो ये सारी यादें धुंधली सी हो गयी हैं। डायरी एक टाइम मशीन की तरह होती है। लिखते हुए हम अपने अतीत को फिर से जीने लगते हैं। माँ-बाबू के साथ ही  बचपन भी गया। न घुटने पर लटकते हुए 'घुघुआ मन्ना' का खेल रहा, न खाने में वो स्वाद रहा। बाबू के जाने के बाद आम और अमरूद ने भी फल देने से इंकार कर दिया। बाबू समय से पहले रिटायरमेंट लेकर इस बियाबान में घर इसलिए बनवाए थे ताकि ज़िन्दगी में उन्होंने जो सुकून खो दिया, वह वापिस मिल सके। मैं प्रकृति से अपना रिश्ता कायम कर सकूं, उन्हें समझ सकूं। कुछ दिन तक तो सब कुछ बहुत अच्छा था, बिल्कुल किसी 'हैप्पी फैमिली फ़िल्म की तरह' फिर वह काला दिन, वह दुर्घटना... दोनों कार से आ रहे थे।  उनकी गाड़ी सामने से आ रहे ट्रक से सीधी टकराई और मेरी दुनिया खत्म। उफ्फ ! डॉक्टर ने कहा है तनाव नहीं लेने के लिए। क्या करूँ मेरी ज़िंदगी तो अपने-आप में एक तनाव है।

9

गुलाबी ठंड के मौसम में मैं भाग रही थी। पसीने से लथपथ, नंगे पांव। भागती जा रही थी, चेहरे पर  डर तारी था। एक परछाईं नीले गुलमोहर के पास सरसराती सी दिखी। मैं उससे छिपने की कोशिश में गुलमोहर के पेड़ से लिपट गयी। वह परछाईं अब बित्ते भर की दूरी पर थी। ज्यों ही मैं लपक कर भागना चाही मेरे पांव में ठोकर लगी और मैं गिर पड़ी, मेरी फ्रॉक...कहां गई? सतरंगी किरणें आंखों में चुभने लगी और मेरी मिचमिचाई आंखें अधखुली सी यह समझने की कोशिश करने लगी कि यह सच है या सपना। सांस अब भी धौंकनी सी तेज चल रही थी। पलकें अब तक गीली थीं। फ्रॉक की जगह टी -शर्ट, ट्राउज़र ने ले ली थी। खुद को मैंने समझा लिया कि यह सपना था, हक़ीक़त नहीं। 

        10

तुम मेरी ज़िंदगी में जाने कब आए। इन दिनों ठीक-ठीक मुझे कुछ याद भी नहीं रहता। सुनो, तुम तुम ही मेरे नीले गुलमोहर हो जो मेरी हर बात सुनता है। लंबे बिछुड़न के बाद, हम जब मिलते हैं, तुम्हारी मुस्कान उसके फूलों की तरह मुझपर बरसती है। उसकी नीली आभा तुम्हारे रंग से मिलती-जुलती ही तो है। सच कह रही हूँ अगर वह मानवाकार होता तो बिल्कुल तुम्हारी तरह होता। तुमने किसी जादूगर की तरह छड़ी घुमाकर मेरे दुखों का अंत कर दिया। मेरी सारी परेशानियां छू-मंतर कर दी। तुमने मुझे फिर से जीने का हौसला दिया, हंसना सिखाया, उन्मुक्त होकर गाने और नाचने का जोश भर दिया।

मैं उलझने लगी थी कि वो मेरा सच था या कि ये मेरा सच है? साथ-साथ गाना-नाचना या फिर अकेले में गुमसुम आंसू बहाना? एक पसन्द या अलग चॉइस? क्या है मेरा सच? 

जब-जब तुम्हें देखती ऐसा लगता कि सपनों का वह नीला गुलमोहर मेरे सामने खड़ा है। वही स्नेह, वही प्रेम, वही अपनापन। मेरा नीला गुलमोहर मुझे मिल चुका है। ये मेरे जीवन का सबसे उजला पक्ष है। मेरे जीवन का उजाला, जो अब मुझे रास्ता दिखा रहा है।

11.

कभी-कभी स्वप्न और यथार्थ एक से प्रतीत होते हैं, ठीक तभी नींद उचट जाती है... उस दौरान रात ऊंघ रही होती है। मन किसी निष्कर्ष पर पहुंचना चाहता है कि पुनः नींद थपकियां दे देती है। सच तो यही है कि स्वप्न यथार्थ नही होता...नही हो सकता।

तुम्हारे साथ आगे बढ़ने के लिए ये सबकुछ छोड़ना होगा, ये घर, नर्सरी और….और मेरा अतीत? अजीब दोराहे पर खड़ी हूँ! आगे कुछ नज़र नहीं आ रहा। इन सब के बगैर जीने की मुझे आदत नहीं। मां-बाबू के जाने के बाद ये सब ही तो मेरे अपने हैं, मुझे संभाला है, प्यार दिया है। इनके बिना मैं कैसे जी पाऊंगी? मधुमालती की ये लता....इसे तो बाबू ने ही लगाया था और कहा था 'देखो बबी ये है तुम्हारी सखी, बिल्कुल तुम्हारे जितनी। इसे जितना दुलारोगी उतनी तेजी से बढ़ेगी और एक दिन तुमसे भी लंबी हो जाएगी।"  इन सब के बिना जीना...उहुँ। ये सबकुछ छोड़ कर तुम्हारे साथ जाना मुश्किल नहीं, असंभव है। तुम्हें तो पता है मैं एक अतीतजीवी हूँ। आज तक अपने अतीत के सहारे ही जीती आयी हूँ। तुमने कितनी बार मुझसे कहा "वर्तमान में जीना सीखो। यही सत्य है। तुम्हारा सत्य अब 'मैं' हूँ। जो बीत गई सो बात गई।" तुमने तो कह दिया पर मैं अपने मन को कैसे समझाऊं ?

शर्त गुलामी की पहली सीढ़ी है। मैं प्रेम कर सकती हूँ कैद नहीं हो सकती। तुम मुझे बांध नहीं सकते...मैं बंधन के लिए बनी ही नहीं हूँ। हं! तो अब आओ, आओ और... और तुम भी मेरे अतीत का हिस्सा बन जाओ, जिसके सहारे मैं अपनी पूरी ज़िंदगी गुज़ार सकूं। जीवन एक भ्रम ही तो है और प्रेम… छलावा! 

"मां की दुआ न बाप की शफ़क़त का साया है, आज अपने साथ अपना जनमदिन मनाया है।" यही मेरा यथार्थ है। अंजुम सलीमी ने इस शेर में मेरे ही जज़्बात उतारे हैं। दो लोगों के एहसास एक से तभी हो सकते हैं जब एक ही परिस्थितियों से दोनों गुज़रे हों। एक बार पुनः रिश्ते की लाश को कंधा देने में जुट गई हूं। उम्मीद है इस बार अवसाद से बच सकूंगी।

मैं अब डायरी नहीं लिखना चाहती। जीवन के टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर चलना मेरी तकदीर है और मैंने उसे पूरी निष्ठा से अपना लिया है। मेरा जीवन पैचवर्क से बना गलीचा है। किसी भी पैच को हटाने से उसकी खूबसूरती खत्म हो जाएगी। जीवन को जोड़-जोड़ कर थक चुकी। अब नहीं जोड़ूंगी। जो टूटा है उसे बस यूं ही छोड़ दूंगी।

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