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एक कहानी यह थी...

 

उन दोनों की वह पहली मुलाकात थी। पहली मुलाकात में ही उसने, इसे "एक इंच मुस्कान" पढ़ने के लिए दी, साथ ही यह आदेश भी कि इसे पढ़ो फिर इसपर चर्चा करेंगे। इसने पहले भी मन्नू भंडारी की कहानियां पढ़ी थीं, महाभोज नाटक भी देखा था, पर कभी चर्चा करने के नज़रिए से नहीं। सच कहूँ तो ये चर्चा शब्द से ही घबराती थी...कविताओं से तो फिर भी पहचान थी...पर कहानियां और उपन्यास, उनसे अभी सही में परिचय होना बाकी था... प्रगाढ़ता तो दूर की बात थी। "एक इंच मुस्कान" अभी खत्म भी नहीं हुई थी कि अगला आदेश "एक कहानी यह भी" पढ़ने का मिल गया। दोनों पुस्तक का अध्ययन और चर्चा समानांतर चलती रही। 

ये इसकी मन्नू भंडारी के लेखन को नए सिरे से समझने की शुरुआत थी और लेखन की भी...। इसके लिए मन्नू भंडारी न जाने कब प्रेरणा बन गई, उनकी सामान्य भाषा में लिखी कहानियां कब ज़ेहन में उतर चलीं एहसास ही नहीं हुआ। हौले से छूकर निकल जाने वाली मखमली भाषा, स्त्री मन को सहजता से शब्दबद्ध करती लेखनी...ज्यों-ज्यों मन्नू भंडारी की कहानियों से इसकी नजदीकियां बढ़ती गईं ये दोनों भी करीब आते गए। फिर तो इसने मन्नू भंडारी की एक के बाद एक लगभग सारी कहानियां पढ़ डाली। कहानियाँ यूँ ही तो नहीं लिखी जातीं उनके पीछे अवचेतन में छिपी न जाने कितनी ही घटनाएं होती हैं। एक इंच मुस्कान के साथ खत्म हुई एक कहानी यह भी … और इस कहानी के साथ उन दोनों की कहानियों में भी विराम आ गया.... उनकी दरम्यां भी तो एक कहानी ही थी...अधूरी ही सही!

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