Skip to main content

अंधभक्ति का स्याह सच



ल कुछ चैनल्स पर डिस्कशन चल रहा था... विषय था 'आसाराम'. डिस्कशन में ढेर सारे मुद्दे उठ रहे थे... लेकिन जो बात मुझे बार बार खटक रही थी वो थी आरोपी को बार - बार 'संत' से संबोधित करना या फिर नाम के अंत में 'बापू' संबोधन का प्रयोग . एक तो हमारे देश में वैसे ही इतने 'भक्त' भरे पड़े है, एक व्यक्ति ने किसी कि भक्ति शुरू कि तो पूरा हुजूम उसके  पिछे चल पड़ता है. आश्रम शुरू करना  व्यवसाय बनता जा रहा है. ऐसी घटनाये होती रहती है फिर भी अनुयायियों कि संख्या में कोई कमी नही आती. लाखों का चंदा ऐसे ही  किसी तथाकथित गुरुओं को समर्पित कर दिया जाता है और फिर ऐसे लोग उसे नाजायज तरीके से खर्च करते है.

ये भी सोचने वाली बात है कि आम लोगों कि आख़िर ऐसी कौन सी भावना काम करती है जो वे आसानी से किसी के भक्त बन जाते है. भक्त ही नही अंधभक्त बन जाते है और ऐसे गुरुओं को बापू, संत, भगवान से संबोधित करने लगते है. उन गुरुओं का कहा पत्थर कि लकीर हो जाता है... उनकी वजह से खान पान, रहन सहन भी बदल जाता है. यहाँ तक कि अगर कोई उसके खिलाफ बोले तो वो भी दुश्मन हो जाता है. भी कभी ऐसा लगता है कि शायद ऐसी मानसिकता तब ज़्यादा काम करती है जब लोग हर तरफ़ से निराश हो जाते हैं... यहाँ तक कि ख़ुद पर से भी विश्वास खत्म होने लगता है तब उन्हें कोई ऐसा चाहिए होता है जो उन्हें यह एहसास दिलाये कि सब ठीक हो जाएगा और लोगों की इसी कमजोरी का फायदा उठाते है ऐसे लोग.

क अखबार में पढ़ी कि उस बच्ची... जिसने आसाराम के खिलाफ रिपोर्ट लिखवायी...के आचरण के बारे में आसाराम के आश्रम कि पत्रिका में काफ़ी कुछ ग़लत लिखा गया था...मतलब जब डराने धमकाने से बात नही बनी तो अब बदनाम करना सबसे आसान हथियार. एक तथाकथित 'गुरु' और उनके अनुयायी किस हद तक गिर सकते है... ये इसका एक उदाहरण भर है.  

© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित! 

Comments

Popular posts from this blog

हुंकार से उर्वशी तक...(लेख )

https:// epaper.bhaskar.com/ patna-city/384/01102018/ bihar/1/ मु झसे अगर यह पूछा जाए कि दिनकर की कौन सी कृति ज़्यादा पसंद है तो मैं उर्वशी ही कहूँ गी। हुंकार, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी जैसी कृति को शब्दबद्ध करने वाले रचनाकार द्वारा उर्वशी जैसी कोमल भावों वाली रचना करना, उन्हें बेहद ख़ास बनाती है। ये कहानी पुरुरवा और उर्वशी की है। जिसे दिनकर ने काव्य नाटक का रूप दिया है, मेरी नज़र में वह उनकी अद्भुत कृति है, जिसमें उन्होंने प्रेम, काम, अध्यात्म जैसे विषय पर अपनी लेखनी चलाई और वीर रस से इतर श्रृंगारिकता, करुणा को केंद्र में रख कर लिखा। इस काव्य नाटक में कई जगह वह प्रेम को अलग तरीके से परिभाषित भी करने की कोशिश करते हैं जैसे वह लिखते हैं - "प्रथम प्रेम जितना पवित्र हो, पर , केवल आधा है; मन हो एक, किन्तु, इस लय से तन को क्या मिलता है? केवल अंतर्दाह, मात्र वेदना अतृप्ति, ललक की ; दो निधि अंतःक्षुब्ध, किन्तु, संत्रस्त सदा इस भय से , बाँध तोड़ मिलते ही व्रत की विभा चली जाएगी; अच्छा है, मन जले, किन्तु, तन पर तो दाग़ नहीं है।" उर्वशी और पुरुरवा की कथा का सब...

ये हौसला…

उ स दिन गार्गी उदास सी घर के कामों में उलझी थी।  उसकी उदासी को समझ पाना बहुत ही आसान था, क्योंकि जब वो खुश - प्रफुल्लित रहती है, या तो कोई प्यारा सा बांग्ला गीत गुनगुनाती रहेगी या फिर यहां की बातें - वहाँ की बातें बांग्ला मिक्स टूटी फूटी हिन्दी में बताती रहेगी, जिसमें अक्सर लिंग भेद की त्रुटियाँ भी होती थीं, हालांकि करीब  चार - पांच  सालों के हमारे साथ ने उसकी हिंदी में काफी सुधार ला दिया था। अपने नाम के बिलकुल उलट - निरक्षर, अव्वल दर्जे की नासमझ, जिसे कोई भी चकमा दे जाता, रोज़ बेवक़ूफ़ बनती। मज़ाक  करते हुए मै अक्सर उससे पूछा करती कि आखिर तुम्हारा नाम गार्गी किसने रख दिया, पता है गार्गी कितनी पढ़ी लिखी विदुषी महिला का नाम था, वो मेरी बातें सुनती और हंसती…हाँ लेकिन वो बंगाली खूबसूरती से भरी पूरी थी, दुबली पतली सी…बड़ी बड़ी आँखों वाली । अक्सर अपनी बातें मुझसे साझा करती थी -  चाहे तकलीफ - परेशानियां हो या फिर कोई खुशी की बात, यहां तक कि अगर किसी ने उसके मेहनताने की रकम भी बढ़ाई तो भी बेहद खुश होकर बताएगी। कभी किसी की बुराई करते करते नाराज़ हो जाएगी तो ...

चिड़ियाँ

शाम हो चली थी।  सारे बच्चे छत पर उधम मचा रहे थे।  उनकी धमा चौकड़ी की आवाज़ से बिट्टी का  पढ़ाई से ध्यान बार बार उचट रहा था, लेकिन फिर पापा की घूरती आँखें, उसके ध्यान को वापिस ७ के पहाड़ा पर टिका दे रही थी । अब वो ज़ोर ज़ोर से पहाड़ा याद कर रही थी "सात एकम सात, सात दूनी चाॉदह"  तभी आवाज़ आई "हमार चिरैयाँ बोलेला बउवा के मनवा डोलेला" बिट्टी अपने पिता की ओर देखी, उनका ध्यान कहीं और था।  वह तुरंत खिड़की पर पहुँच कर नीचे झाँकने लगी। मोम से बनी रंग बिरंगी छोटी छोटी चिड़ियाँ ।  उसकी इच्छा हुई की बस अभी सब में प्राण आ जाए और सब सचमुच की चिड़ियाँ बन जाए ।  वो मोम की चिड़ियों की सुंदरता में डूबी हुई थी ।  तभी नीचे से चिड़िया वाले ने पूछा - "का बबी चिरैयाँ चाहीं का, आठ आना में एगो। " बिट्टी ने ना में सर हिलाया ।  फेरी वाले ने पुचकारते हुए कहा " जाए द आठ आना में तू दुगो ले लिहा।" बिट्टी फिर ना में सर हिला कर वापिस पिता के पास ...