हमारे देश में ज़्यादातर महिलाओं को मैनज करने में महारत हासिल है. चाहे गाँव हो या शहर, रसोई हो या घर हर जगह उनका मैनजमेंट सफल होता है. कल ही हमारी कामवाली बता रही थी की कैसे बड़ी बेटी के जन्म के समय उसके पास खाने क लिए कुछ नहीं होता था बावजूद इसके वो पल गयी और आज वो तेरह साल की है, ये भी तो एक तरह का मैनेज करना ही है .
कुछ ऐसा ही दिल्ली मेट्रो में भी देखने को मिलता है खासतौर पर महिलाओं क डब्बे में, हमें लगता है मैनेज करने का उस से बड़ा उदाहरण कोई हो नहीं सकता. डिब्बे में तिल रखने की जगह नहीं होती पर धन्य है इस कोच में सफ़र करने वाली महिलाएं पैर रखने की जगह बना ही लेती है और फिर अगले स्टेशन पर और महिलाओं के अन्दर आने का रास्ता भी बना लेती है. भले अन्दर एयर कंडीशंड कोच में भी घुटन होने लगे... खुशबु और बदबू के मिले जुले स्वरुप से उबकाई आने लगे , लेकिन मैनेज करने में कोई कमी नहीं. कभी कभी तो ऐसा लगता है की कोच में महिलाएं नहीं बल्कि गेहू की बोरियां है जिन्हें ज्यादा से ज्यादा अटाने के लिए मैनेज किया जा रहा है. धन्य है ये मैनेज का गुण, जो यहाँ जन्मजात मिल जाता है.
व्यंग्य, मैनेज करने का गुण
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