Skip to main content

डायरी के पन्नो से

चंदा

बादलों के पीछे से छिपकर
आता है चंदा,
किसी सुन्दरी के माथे पर लगी
गोल बिंदिया सा चमचमाता है चंदा।
कभी यहाँ और कभी वहां
जगह बदलता जाता है चंदा।
कभी कभी इस विशाल आसमान में
घर भी भटक जाता है चन्दा ।
कभी मंदिरों के पीछे, तो कभी दरख्तों के ऊपर
कभी बादलों के पीछे, तो कभी अटारी पर
पहुँच जाता है चंदा।
(ये कविता जब मैं नौवी कक्षा में थी तब लिखी थी। )

आह्वान

हे देश के युवा
भविष्य निर्माता
है अगर ताक़त तुममे
है अगर तुम्हारी शिक्षा में बल
तो बढ़ो आगे और
उखाड़ फेंको
इस अशिक्षा रूपी ठूंठ को
जिससे मिलता नहीं
किसी व्यक्ति को
सहारा
और लगा दो वहां
शिक्षा के हरे भरे पेड़
इन्हे सिचने के लिए
तुम्हारा प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम
के लिए दृढ़ संकल्प होना ही
काफ़ी है।
हे वीरों, देश के युवाओं
तो चलो हम सब मिलकर
देश से तिमिर का अंत कर
उजाला फैलाएं
और देश को शिक्षित बनाएं।
( ये कविता जब मै दसवीं बोर्ड पास करने के बाद लिखी । )

Comments

Bandmru said…
lagta hai aap bachpan se hi kavi thi. hai naaaaaaaa didi! kitna aachchha likha hai aapne.

aab main apne blog pr aapke comment ke bare men batana chahta hu ki main is samay bakwas blog ke bakwash sahayaron ke shayri ko padh kr bakwash likhne laga hu....

waise aapne kya khub likha hai didi..
man khush ho gaya. kash ki main bhi aapne bachpan men kuch likh pata aur dayri ke panno se blog pr dalta. bahut khub likha hai didi aapne.........
bahut aachchha ...........
Bandmru said…
intermidiate aur uske baad ka bhi aana chahiye kyon hai na... bahut khub didi. .........
मीत said…
उम्दा, सुंदर, तारीफ के काबिल...
जनती हो मैं भी शायद ५ वी क्लास से लिख रहा हूँ, पहली कविता जब मेट्रो चेनल शुरू हुआ था तो उस पे पूजा भट्ट का एक कार्यक्रम आता था, मेरे साथ चल उस पर ही लिखी थी...
---मीत

Popular posts from this blog

हुंकार से उर्वशी तक...(लेख )

https:// epaper.bhaskar.com/ patna-city/384/01102018/ bihar/1/ मु झसे अगर यह पूछा जाए कि दिनकर की कौन सी कृति ज़्यादा पसंद है तो मैं उर्वशी ही कहूँ गी। हुंकार, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी जैसी कृति को शब्दबद्ध करने वाले रचनाकार द्वारा उर्वशी जैसी कोमल भावों वाली रचना करना, उन्हें बेहद ख़ास बनाती है। ये कहानी पुरुरवा और उर्वशी की है। जिसे दिनकर ने काव्य नाटक का रूप दिया है, मेरी नज़र में वह उनकी अद्भुत कृति है, जिसमें उन्होंने प्रेम, काम, अध्यात्म जैसे विषय पर अपनी लेखनी चलाई और वीर रस से इतर श्रृंगारिकता, करुणा को केंद्र में रख कर लिखा। इस काव्य नाटक में कई जगह वह प्रेम को अलग तरीके से परिभाषित भी करने की कोशिश करते हैं जैसे वह लिखते हैं - "प्रथम प्रेम जितना पवित्र हो, पर , केवल आधा है; मन हो एक, किन्तु, इस लय से तन को क्या मिलता है? केवल अंतर्दाह, मात्र वेदना अतृप्ति, ललक की ; दो निधि अंतःक्षुब्ध, किन्तु, संत्रस्त सदा इस भय से , बाँध तोड़ मिलते ही व्रत की विभा चली जाएगी; अच्छा है, मन जले, किन्तु, तन पर तो दाग़ नहीं है।" उर्वशी और पुरुरवा की कथा का सब

यादें ....

14 फरवरी - प्रेम दिवस...सबके लिए तो ये अपने अपने प्रेम को याद करने का दिन है,  हमारे लिए ये दिन 'अम्मा' को याद करने का होता है. हम अपनी 'दादी' को 'अम्मा' कहते थे- अम्मा के व्यक्तित्व में एक अलग तरह का आकर्षण था, दिखने में साफ़ रंग और बालों का रंग भी बिलकुल सफेद...इक्का दुक्का बाल ही काले थे... जो उनके बालों के झुरमुट में बिलकुल अलग से नजर आते थे. अम्मा हमेशा कलफ सूती साड़ियाँ ही पहनती.. और मजाल था जो साड़ियों की एक क्रिच भी टूट जाए। जब वो तैयार होकर घर से निकलती तो उनके व्यक्तित्व में एक ठसक होती  । जब तक बाबा  थे,  तब तक अम्मा का साज श्रृंगार भी ज़िंदा था। लाल रंग के तरल कुमकुम की शीशी से हर रोज़ माथे पर बड़ी सी बिंदी बनाती थी। वह शीशी हमारे लिए कौतुहल का विषय रहती। अम्मा के कमरे में एक बड़ा सा ड्रेसिंग टेबल था, लेकिन वे कभी भी उसके सामने तैयार नही होती थीं।  इन सब के लिए उनके पास एक छोटा लेकिन सुंदर सा लकड़ी के फ्रेम में जड़ा हुआ आईना था।  रोज़ सुबह स्नान से पहले वे अपने बालों में नारियल का तेल लगाती फिर बाल बान्धती।  मुझे उनके सफेद लंबे बाल बड़े रहस्यमय

वसंतपुत्री का वसंत से पहले चले जाना...

ज बसे मैंने हिंदी साहित्य पढ़ना और समझना शुरू किया....तब से कुछ लेखिकाओं के लेखन की कायल रही जिनमें कृष्णा सोबती और मन्नू भंडारी का नाम सबसे ऊपर है। दिलचस्प ये कि दोनों ही लेखिकाओं से मिलने और साक्षात्कार करने का कभी सौभाग्य नहीं मिल सका। अपने कार्यक्रम के लिए दोनों से ही मेरी बातें हुई और दोनों ने ही हमेशा मना किया। 2015 से लेकर 2017 के बीच  कृष्णा सोबती जी से तो हर तीन चार महीने में  कॉल कर के उनकी तबियत पूछती और कैमरा टीम के साथ घर आने की अनुमति मांगती...अंततः मैं समझ गई वे इस इंटरव्यू के लिए तैयार नहीं होंगी और मैंने उन्हें फोन करना बंद कर दिया। जब ज्ञानपीठ मिलने की खबर मिली तब ऐसा लगा कि शायद अब साक्षात्कार के लिए तैयार हो जाएं फिर पता चला कि तबियत खराब होने की वजह से उनकी जगह अशोक वाजपेयी जी ने उनका पुरस्कार ग्रहण किया।   वे मेरी प्रिय लेखिकाओं में से थीं और हमेशा रहेंगी। मैंने कम लेखिकाओं के लेखन में इतनी उन्मुक्तता देखी जो यहाँ पढने को मिली।  कई बार  उनकी कहानियों पर खासा विवाद भी हुआ क्योंकि  किसी लेखिका ने साहस के साथ स्त्री मन और उसकी ज़रूरतों पर  पहली बार  लिखा था।  एक वर