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Showing posts from 2008

मुंबई मेरी जान

चमचमाती रोशनी से नहाई मुंबई की रात और नगर की पहचान भव्य ताज कई ऐतिहासिक घटनाओं की गवाह लेकिन, बुधवार की काली रात देखते ही देखते छा गया तबाही का मंज़र मुठी भर दहशतगर्दों के हाथों में थी सैकडों लोगों की जान ग्रेनेड के धमाकों और गोलियों की आवाजों ने त ोडी रात की चुप्पी देखते ही देखते आग और धुएँ में नहाई थी मुंबई की भव्यता देश की आर्थिक राजधानी डूब गई अंधेरे में.

डायरी के पन्नो से

चंदा बादलों के पीछे से छिपकर आता है चंदा, किसी सुन्दरी के माथे पर लगी गोल बिंदिया सा चमचमाता है चंदा। कभी यहाँ और कभी वहां जगह बदलता जाता है चंदा। कभी कभी इस विशाल आसमान में घर भी भटक जाता है चन्दा । कभी मंदिरों के पीछे, तो कभी दरख्तों के ऊपर कभी बादलों के पीछे, तो कभी अटारी पर पहुँच जाता है चंदा। (ये कविता जब मैं नौवी कक्षा में थी तब लिखी थी। ) आह्वान हे देश के युवा भविष्य निर्माता है अगर ताक़त तुममे है अगर तुम्हारी शिक्षा में बल तो बढ़ो आगे और उखाड़ फेंको इस अशिक्षा रूपी ठूंठ को जिससे मिलता नहीं किसी व्यक्ति को सहारा और लगा दो वहां शिक्षा के हरे भरे पेड़ इन्हे सिचने के लिए तुम्हारा प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम के लिए दृढ़ संकल्प होना ही काफ़ी है। हे वीरों, देश के युवाओं तो चलो हम सब मिलकर देश से तिमिर का अंत कर उजाला फैलाएं और देश को शिक्षित बनाएं। ( ये कविता जब मै दसवीं बोर्ड पास करने के बाद लिखी । )

खामोशी और अँधेरा, फ़िर भी एक नया सवेरा

ईश्वर ने हम सबको सामान्य बनाया तब भी हम हमेशा किसी न किसी परेशानी को लेकर दुखी रहते हैं। हमें ऐसा लगता है की हमारी परेशानी से बढ़कर कोई परेशानी नही है। ईश्वर ने सारे दुःख हमारी झोली में डाल दिए हैं। पर उन लोगों का क्या जिसे प्रकृति ने असामान्यता दे दी। बीते दिनों कुछ ऐसे ही लोगों से मिलने का मौका मिला। कुछ तो दिखने में इतने समान्य और सुंदर थे की उन्हें देखकर कोई नहीं कह सकता की वो सुन और बोल नहीं सकते। मुझे आश्चर्य और खुशी ये देखकर हुई की कुछ कंपनियों ने ऐसे ख़ास लोगों को अपने यहाँ काम दिया है, और ये लोग समान्य से बेहतर पर्फोमांस दे रहे हैं। इनमे सिखने की ललक औरों से ज़्यादा है। इनमे कुछ कलाकार हैं तो कुछ खिलाड़ी लेकिन अपनी बातों को लोगों के सामने नही रख पाने के कारन ये गुमनामी के अंधेरे में खो गए। इन में से हर एक के परिवार की एक अलग ही कहानी है। एक लड़का, जिसकी माँ मानसिक रोगी, पिता मूक - बधिर, पत्नी भी मूक - बधिर..... अब वो पिता बनने वाला है । उसे डर है की कहीं उसका होने वाला बच्चा भी मूक - बधिर ना हो जाए। एक और परिवार जहाँ माता - पिता और बेटा मूक - बधिर हैं लेकिन बेटे की पत्नी समान्य

वेल बिहेव्ड वुमन रेयरली मेक हिस्ट्री

लक्ष्मीनगर से संसद तक आना और वह भी दफ्तर वाले समय यानी सुबह 9 बजे से 11 बजे के बीच, कोई आसान काम नही है । ट्रैफिक की बाढ़ होती है... ऐसा लगता है जाने कहाँ बहा ले जायेगी ये भीड़ । उस समय कोई भी निकलना नही चाहता, यहाँ तक की ऑटो वाले भी ऑफिस का नाम लेने पर कन्नी काटने लगते हैं। शुक्रवार को मैं  दफ्तर जा रही थी।आई टी ओ पर ट्रैफिक करीब पन्द्रह मिनट से रुकी हुई थी । ऐसे बोरियत भरे समय में ध्यान इधर-उधर भटकता रहता है। मैं भी सामने खड़ी हर गाड़ी को देख रही थी उस पर लिखे कैप्शंस को पढ़ रही थी। एक पंक्ति ने मेरा ध्यान खींचा।  मेरे अन्दर उस गाड़ी के मालिक को देखने की इच्छा हुई। पंक्ति अंग्रेजी में लिखी गयी थी - "वेल बिहेव्ड वीमेन रेयरली मेक हिस्ट्री". पता नहीं क्यों मैं उस पंक्ति को पढ़ने के बाद  रास्ते भर  उस पर सोंचती रही। क्या जो लिखा है वाकई वह सच है... सही है! मुझे लगा कि शायद सही ही है। घर से बाहर निकलने के बाद एक लड़की को हर काम के लिए संघर्ष करना पड़ता है... लड़ना पड़ता है। अगर वह  किसी से भी अच्छे से बात करे तो सामने वाला उसे कमज़ोर समझ या तो उसका फायदा उठाने की कोशिश करत

एड्स: जारी है संघर्ष

पिछले दिनों अपने कार्यक्रम के सिलसिले में मैंने एड्स रोगियों से मुलाक़ात की कोशिश की । ये काम इतना आसान भी नहीं था। काफ़ी नेट सर्फिंग के बाद कुछ एनजीओ का पता मिला जो इनलोगों के लिए काम करते हैं। पता लेकर आनन फानन में मैं उनसे मुलाक़ात तय कर मिलने के लिए चली गई। कुछ इंतज़ार के बाद मेरी मुलाक़ात उस आरगेनाइजेशन को चलाने वाले से हो गई। छोटे से परिचय के बाद काम की बात शुरू हुई। मैंने अपने कार्यक्रम के बारे में बताया , ये भी कहा की मुझे एड्स रोगी से मिलना है, उनके परिवारवालों से मुलाक़ात करनी है। इधर उधर की बात के बाद वो सज्जन समझाने लगे की क्या कोई एड्स रोगी कैमरा के सामने आएगा...नहीं। जब कोई भी व्यक्ति एच आई वी पोसिटिवे होता है तो उसके सामने सबसे पहले उसका परिवार आता है... फ़िर ज़िन्दगी जीने की समस्या आती है, फ़िर सवाल उठता है की आख़िर ज़िन्दगी जीने के लिए अहम् चीज़ ....पैसा ,कहाँ से आएगा.....ये सारी समस्याओं को बताने के बाद वे मुझसे पूछे की क्या हमारा चैनल उन्हें पैसे भी देगा? मैंने पैसे देने में अपनी असमर्थता ज़ाहिर की और कहा की हम उनकी समस्याओं को लोगों के सामने लायेंगे, पर इसके लिए उन्हें हमा

मेरी बातें

बहुत दिनों से कुछ नहीं लिख सकी ऐसा नहीं था की लिखने की चाहत नहीं थी , वास्तव में कुछ समय की कमी और थोड़े से आलस ने मुझे ब्लॉग लेखन से दूर कर दिया था। हर दिन सोचती थी की आज ये लिखूंगी आज वो लिखूंगी, लेकिन जब ऑफिस पहुँचती तो काम के सिवा कुछ याद नहीं होता था और घर पहुँचने के बाद थकान से कुछ याद नहीं रहता । शनिवार का दिन भी आम दिन की तरह ही था। मैंने अपने प्रोग्राम के कवर स्टोरी के लिए कुछ लोगों से बातें की हुई थी । शूट के लिए करीब एक बजे निकली। रास्ते में ही तय किया की शूट ख़त्म करने के बाद कनात प्लेस में जाकर कुछ जनरल शॉट्स बनायेंगे और अपना पीटीसी भी वहीं सेंट्रल पार्क में करेंगे । स्टोरी शूट में ही देर हो गई और कनात प्लेस पहुँचने में पौने पाँच बज गए । वहां पहुँच कर हमलोगों ने शूटिंग शुरू कर दी । हमें थोड़ा आश्चर्य ये हो रहा था की आमदिनों के मुकाबले उस दिन भीड़ थोडी कम थी। मैंने अपने कैमरामैंन से भी कहा की आज भीड़ कम है। छः बजे मेरे भाइयों का फोन आया, वे मुझे पिक करने सीपी ही आ रहे थे। मैंने उस दिन का शूट कैंसिल कर दिया, और दूसरे दिन के लिए तय कर दिया। मुझे क्या पता था की ये मेरा सौभाग

(२)

एक तरफ़ पूर्णमासी का चाँद तुम चांदनी

(१)

पलकों से गिरे आँसू, बन गए मोती बेशकीमती रत्न ।

नम हुई आंखें

अभी कुछ दिन पहले ही एक अखबार के छोटे से कॉलम में पढ़ी की बिहार के किशनगंज की रहने वाली एक महिला को उसके पति ने ही दिल्ली में बेच दिया । वो तो उस महिला की बहादुरी थी और एक संस्था की दिलेरी जिससे वो महिला अपनी अस्मत बचाने में कामयाब रही। हालाँकि अन्य अखबारों या खबरिया चैनलों में इसकी चर्चा मुझे दिखी नहीं। शायद उनके लिए ये बड़ी ख़बर नहीं थी क्योंकि अब तो ऐसी घटनाएं आम हो गई है। मेरा ध्यान इस कॉलम की ओर इसलिए गया क्योंकि इस घटना से कुछ दिन पहले ही मुझे इस विषय पर काम करने का मौका मिला था। उस दौरान मेरी मुलाक़ात इसी संस्था के संचालक से हुई थी जो लंबे समय से लड़कियों और महिलाओं को खरीद फरोख्त से बचाने और उन्हें सशक्त करने के प्रयास में जुटे हुए हैं। उन्होंने बताया की कैसे लड़कियों की खरीद फरोख्त में एक पुरा गिरोह काम करता है। ऐसे गिरोह के चंगुल में ख़ासतौर पर वैसे लोग या वैसे परिवार फंसते हैं, जो बेहद गरीब होते हैं , जिनके घर में बेटियाँ ज़्यादा होती हैं। दिल्ली, मुंबई, हरियाणा,जयपुर और आगरा में इनके ग्राहक ज़्यादा होते हैं। सवाल उठता है लडकियां लायी कहाँ से जाती हैं? एक अध्ययन से ये बात सामने

कामयाबी की कहानी

अब तक किस्से कहानियो में ही सुना करती थी की कैसे एक गाँव की अनपढ़ महिला संघर्ष कर लोगों के लिए एक मिसाल बन गई। लेकिन पहली बार अपनी आँखों से देख सकी उस महिला को जिसने आज से करीब अस्सी साल पहले भोजपुर जैसे इलाके में व्यापार में योगदान देकर एक नई शुरुआत की। मैं बात कर रही हूँ भोजपुर के पकडी गाँव की रहने वाली फूलवंती की। ये सच है की फूलवंती को जानने वाले बहुत कम लोग ही मिलेंगे क्योंकि वो दशरथ मांझी की तरह भाग्यशाली नहीं है जिनपर मीडिया की नज़र पड़ सके, लेकिन उसके संघर्ष की कहानी उस गाँव में जाइए तब आपको समझ में आएगी। आज से अस्सी साल पहले का बिहार, अभी की स्थिति देखकर अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है की कैसा रहा होगा। तब लड़कियों की शादियाँ बचपन में ही कर दी जाती थी। उसके बाद उनका काम गज भर के घूँघट के साथ घर को संभालना हुआ करता था। तब लड़कियों को पढाना सही नहीं समझा जाता था। सातवी पास को ज्यादा पढ़ी लिखी समझा जाता था। तब शादी के बाद औरतें घर की चोव्खत को नहीं लांघा करती थी। कहानी तब की है ... फूलवंती के पति का काम खेती करना था। पैसे की तंगी ने उन्हें क़र्ज़ लेने पर मजबूर कर दिया। फिर शुरू हुआ सिल

कम उम्र में शादी और मातृत्व

स्त्री और पुरूष इश्वर की अनुपम रचना हैं। संसार को चलाने के लिए दोनों की ही बराबर की हिस्सेदारी ज़रूरी है। सिंधु सभ्यता की बात हो या फ़िर वेदिक सभ्यता की, स्त्रियों की पूजा इस देश की सभ्यता और संस्कृति में सदियों से निहित है। लेकिन धीरे धीरे जब बाहर से आक्रमणकारियों ने यहाँ धावा बोला स्त्रियों की स्थिति कजोर होती गई। शायद यही वो समय रहा होगा जब से लोग लड़कियों को बोझ मानने लगे होंगे, उनकी सुरक्षा और जिम्मेदारियों से मुक्ति के लिए उनकी जल्दी से जल्दी शादी करने की प्रथा की शुरुआत भी ऐसे ही हुई होगी । आज वो प्रथा इस देश के लिए किसी नासूर से कम नहीं। नन्ही उम्र में शादी यानी किसी नन्हें पौधे से फल की अपेक्षा करना, ये मानव की सबसे बड़ी भूल है। अगर कच्ची उम्र में किसी लड़की की शादी की जाती है तो वो लड़की ना ही प्राकृतिक रूप से इसके लिए तैयार होती है ना ही मानसिक रूप से , इसीलिए तो क़ानून में भी लड़कियों के शादी की उम्र अठारह साल तय की गई है। बावजूद इसके आज भी खुले आम बाल विवाह हो रहे हैं, और इसके ख़िलाफ़ कदम उठाने वाला कोई नहीं है। यहाँ तक की राजस्थान में तो एक ख़ास मौके पर सामुहिक बाल विवाह कर

एक मुलाक़ात

एक कार्यक्रम के सिलसिले में मुझे उषा राय से मुलाक़ात करने का मौका मिला। जी हाँ वही उषा राय जिनका नाम उन महिला पत्रकारों में शामिल है जिन लोगों ने साठ के दशक में पत्रकारिता में महिलाओं को एक मुक़म्मल स्थान दिलाने की एक पहल शुरू की थी। उनसे मुलाक़ात के बाद कई ऐसी जानकारियाँ मिली जो हम जैसे नए पत्रकारों के लिए ख़ास था। आज महिला पत्रकारों की जैसी स्थिति है हमेशा से वैसी नही थी। ये उस समय की महिला पत्रकारों के प्रयास का हीं कमाल है की आज महिलाऐं बिना किसी पाबन्दी या मुश्किलात के आसानी से पत्रकारिता कर पा रही हैं। साठ के दशक में महिलाओं को पत्रकार रखा ही नहीं जाता था। उषा जी ने एक और महिला पत्रकार प्रभा दत्त की कहानी बताई की कैसे जब वे एक प्राइवेट अखबार में नौकरी के लिए गयी तो उन्हें सिर्फ़ इसलिए मना कर दिया गया क्योंकि वे एक महिला थी। डेढ़ साल बाद उसी अखबार ने एक महिला को डेस्क पर रखा तब प्रभा जी ने उस अखबार के दफ्तर का दरवाज़ा फ़िर खटखटाया और कहा की जब उस महिला को वहाँ काम मिल सकता है तो उन्हें क्यो नही। अंत में जीत प्रभा जी की ही हुई। यही नही पहले महिला पत्रकारों के लिए मतेर्निटी लीव ज

गौरैया

 गौरैया हर  रोज़ तिनका चुन कर लाती है- मेरे घर के छज्जे पर एक घोंसला अब तो बन चुका है उनमें  छोटे छोटे अंडे भी हैं  गौरैया दिन भर उन्हें सेती है , चंद रोज़ बीते - और ... आज  चूजे भी निकल आए । गौरैया अपने बच्चों के लिए खाना लाती है, उनकी चोंच में डालकर फुर्र से उड़ जाती है । हमारा घर चिडियों का खेल्गाह बना हुआ है । धीरे धीरे गौरैया बच्चों को  उड़ना सिखाती है- गिरते - सँभलते वे भी उड़ना सीख लेते हैं, और फिर  एक दिन फुर्र ... घर का छज्जा फ़िर वीरान  हो गया ।

समय

सुनने की कोशिश करती हूँ आने वाले समय की आहट ताकि तैयार कर लूँ ख़ुद को हर परिस्थिति के लिए। लेकिन समय आता है दबे पाँव और पल भर में तबाह कर देता है। जन्म,मृत्यु,सुख, दुःख, सब समय हीं दिखलाता है , वह है मदारी और हमें बन्दर की तरह नचाता है ।

एक पहल

हर रोज़ ऑफिस आते - जाते समय जंतर मंतर से होकर गुजरना पड़ता है, और हर रोज़ मेरी नज़र 1984 भोपाल गैस कांड के भुक्तभोगियों को न्याय दिलाने के लिए धरना पर बैठे उन लोगो पर पड़ती है जो तेज़ धूप हो या फ़िर आंधी-तूफ़ान अपनी जगह पर डट कर बैठे हुए हैं और ये तय कर लिया हैं की वे तब तक लड़ते रहेंगे जब तक उन्हें न्याय नहीं मिल जाता। आश्चर्य होता है ये देख कर की इनलोगों की खबरें ना तो अखबारों में पढ़ने को मिलती हैं और ना हीं किसी न्यूज़ चैनल पर देखने को मिलती हैं । ऐसा भी नहीं कह सकते की उनकी मांग नाजायज़ है । धरने पर बैठे ज्यादातर लोग आज भी तब की लापरवाही की सज़ा भुगत रहे हैं। कई सवाल ऐसे हैं जिनका जवाब अब तक नहीं मिल सका है। बीस साल पहले भोपाल में यूनियन कार्बाइड और डॉ केमिकेल्स की फैक्ट्री से निकले सफ़ेद धुएँ ने लाखों लोगों की ज़िंदगी तबाह कर दी । मेथाइल आइसोसाइनेट गैस के रिसाव का प्रभाव आज भी वहाँ देखने को मिलता है। आज भी वहाँ के पानी में ज़हर घुला हुआ है। उस समय जो भी बच्चे पैदा हुए आज वो बीस साल के हो चुके होंगे । आख़िर उनकी क्या गलती रही होगी जो आज वो किसी ना किसी अपंगता का शिकार

तुम कहो

वो शाम याद करो जब मैं हार कर रो रही थी। तुमने कहा था उठो, लडो और आगे बढ़ो मैं लड़ी और आगे बढ़ी तुमने कहा और आगे बढ़ो मैं और आगे बढ़ी मैं आगे बढ़ती गई और अब तुम कह रहो हो वापस आ जाओ क्या सम्भव है वापस आ पाना।

छोटे शहर की याद

छोटे शहर की याद बहुत आती है वो सुबह सुबह पूजा की घंटियों की आवाजें फिर फेरीवाले और दूधवाले की पुकार शाम में समोसे और चाय का साथ । जी करता है कुछ वक्त निकाल कर बड़े शहर की भागदौड़ से बहुत दूर चली जाऊ वापस उस छोटे शहर की गोद में फिर से वही खुलापन , वही सरलता छोटी छोटी बातों पर खुश हो जाना छोटी बात पर उदास हो जाना पड़ोस के सुख दुःख में साथ निभाना पर अफ़सोस अब बहुत ही मुश्किल है वापस जा पाना।

परिवर्तन

धीरे धीरे चलते चलते दूर कहीं हम आ पहुंचे है चाहे भी तो ना रूक पाए वक्त की धार से जूझ रहे हैं ।

संगीत

हर ध्वनि एक संगीत को जन्म देती है। चाहे वो लहरों की कल कल हो या फिर चिडियों कि चहचः प्रत्येक स्वर में एक संगीत है। कोई भी संगीत हमे अध्यात्म कि ओर ले जाता है, चाहे वो शास्त्रीय संगीत हो या फिर सूफियाना कलाम। संगीत के संबंध में भारत अपने अतीत पर गर्व कर सकता है। भारत में संगीत कि परम्परा का आरंभ वैदिक काल से ही माना जाता है। बाद कि शताब्दियों में इसे सुव्यवस्थित कर संहिताबध किया गया। संगीत का विकास क्षेत्रीय कला के अनुसार लोकशैली में हुआ। धीरे धीरे उसने शास्त्रीय रुप धारण कर लिया। लेकिन फिर भी संगीत के सात सुर हर शैली में एक से ही लगते हैं। वहीं वाधयंत्र के इतिहास पर जब नज़र डालते हैं तो यही एहसास होता हैं कि शुरुआत में बांसूरी, नद्स्वरम, वीना, गोत्त्वाध्यम,मृदंगम और ढोल जैसे क्षेत्रीय यन्त्र ही उपलब्ध थे । सितार और तबला काफी बाद में आये। अब तो और भी नए वाध्ययंत्रों पर प्रयोग जारी हैं। इनमे अनेक भारतीये संगीताग्याओं के नाम भी शामिल हैं, चाहे पंडित रविशंकर हों या फिर अमजद अली खान । खासतौर पर रविशंकर ने तो एक वाध्ययंत्र कि स्वर लिपि तैयार करने में विशेष निपुणता हासिल कर ली है। इन्होने भा

नवयुगल

घन छाया नभ में अभी अभी बादल गरजे है बार बार। अब गरज गरज बरसे है घन धरती भींगी है झूम झूम तरुणी भाई है ये धरती वरुण भी हुआ है तरुण अभी । हवा के झोंके धरती को चूम चूम करते हैं प्यार तब झूम झूम नाचे है मन का मयूर बार बार। नवयुवती सी ये धरा रहे खिली खिली जब पड़े फुहार। सब कहे इस नवयुगल को बस प्यार प्यार, बस प्यार प्यार।

आदमी

आदमी, मंच पर खड़ा होकर लाखों जनता के सामने कहता है भारत कि स्त्रियाँ "सीता और सावित्री" हैं मैं उनका सम्मान करता हूँ। तालियों कि आवाज़ जनता आदमी कि जयकार करती है। आदमी, अन्धकार में "दुह्शासन" बन जाता है। "सीता और सावित्री"उसे "द्रोपदी"नज़र आती है । द्रोपदी "विलाप करती है लेकिन आज... कोई " कृष्ण " नहीं आता जनता " कौरव " बन जाती है। और , " द्रोपदी " कि चीत्कार कौरवों के अट्टहास में खो जाती है।

चैनलों की होड़

१. टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में चैनल क्या क्या नही करते। अफ़सोस होता है जब वे हद को पार कर जाते हैं। ऐसे ही एक दिन इंडिया टीवी में जॉन अब्राहम के गर्दन पर उभरे लाल निशाँ के बारे में परताल चलती रही वो भी पूरे एक घंटे तक और लाइव. जानने कि कोशिश कि जा रही थी कि आख़िर ये निशाँ कैसे हैं। कही वे लव बाईट तो नहीं। उस खबरनामा में ये भी विस्तार से बताया गया था कि इससे पहले कौन कौन से हीरो और हिरोइन के शरीर पर ऐसे निशान देखे गए थे , कब देखे गए थे और शरीर के किस हिस्से पर देखे गए थे। उस एंकर के हिम्मत कि दाद देनी पड़ेगी जो एक घंटे तक बिना हिचकिचाहट के कैमरे के सामने इस पर चर्चा कराती रही। २. सिडनी में भारतीय खिलाड़ियों के साथ जो कुछ भी हुआ सभी ने उसे देखा और गलत ठहराया। इस दौड़ में खबरिया चैनलों में होड़ लगी थी कि कौन किससे और कैसे आगे निकलता है। किसी ने लाइव किया तो किसीने देश - विदेश से प्रतिनिधियों को बुला कर चर्चा करनी शुरू कर दी। सबसे मजेदार रहा जब एक चैनल ने तो सीधे सीधे सचिन तेंदुलकर को लगान फिल्म का आमिर खान ही बना दिया और " बार बार हाँ बोलो यार हाँ " गाने पर उनके शोट्स लगाकर