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हम सब मशीन तो नहीं बन रहे?

अशिक्षा, गरीबी, बेरोज़गारी जैसी समस्याओं से जूझते हुए भारत ने आज़ादी के सत्तर साल पूरे कर लिए हैं। सौर्य ऊर्जा के क्षेत्र में जहां भारत का स्थान दूसरा है वहीं भारत की सैन्य शक्ति विश्व की सैन्य शक्तियों में तीसरे स्थान पर है। तकनीक के मामले में भी भारत पीछे नहीं है।  भारत की तकनीक दुनिया की सर्वाधिक आधुनिक तकनीकों में से एक है। भारत ने अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में भी बड़ी सफलता प्राप्त की है। हमारा देश हर क्षेत्र में आगे बढ़  रहा है, लेकिन आगे बढ़ने की इस दौड़ में भारत के सांस्कृतिक मूल्यों का भी ह्रास भी हो रहा।  कहीं न कहीं हम भारत के मूल स्वरुप से दूर हो हैं।  एक समय था जब देश में संयुक्त परिवार की परम्परा थी। आगे बढ़ने की दौड़ में एकल परिवार तक सिमट कर रह गए हम और फिर अकेलापन और अवसाद जैसी बीमारियों ने पाँव फैलाना शुरू किया। अगर संयुक्त परिवार होता तो शायद आशा साहनी कंकाल में तब्दील नहीं होती। बेटे से खुद को साथ रखने का गुहार नहीं लगाती।
सब यहीं छूट जाएगा, साथ कुछ नहीं जाएगा... न दाम, न चाम, फिर ये पैसे की भूख...आगे बढ़ने की अंधी दौड़ में हम अपनी संवेदनशीलता खो तो नहीं रहे हैं। आशा साहनी की कहानी आज का डरावना सच है... आने वाले समय में ऐसी घटनाएं बढ़ेंगी हीं... मशीनों-कम्प्यूटरों के साथ काम करते करते कहीं हम भी मशीन तो नहीं बनते जा रहे? आभासी दुनिया में सक्रीयता वास्तविक दुनिया से दूर तो नहीं कर रही? सोचना ज़रूरी है...आत्ममंथन बेहद ज़रूरी !


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