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Showing posts from 2015

उदास चाँद

आज चाँद बहुत उदास था, हर ओर पसरी थी , गहरी-डरावनी  अंतहीन रात - सितारों की किरचें चुभती रहीं थीं, होश खोने तक- रूह के ज़ख्म,  कहाँ नज़र आते हैं, बस दे जाते हैं अंतहीन दर्द या, बन जाते हैं नासूर।  © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

यादें क्या हैं ?

या दें क्या हैं ? एक आदत जो प्राथमिकताओं के अनुसार सिमट जाती हैं किसी दिवार के कोने में दफ़्न हो जाती हैं डायरी के पन्नों में कहीं या फिर कैद हो जाती है किसी मेज की दराज में गुज़रते वक़्त के साथ ही चढ़ जाती हैं उस पर समय की परतें और जब ये परतें उतरती हैं तो यादें बन जाती है सैंकड़ों चीटियाँ जो रक्त के साथ धमनियों से होती हुई पहुँच जाती है मस्तिष्क में और उन्हें तब तक नोचती हैं जब तक असहनीय दर्द हर सोच को शिथिल ना कर दे यादें बन जाती हैं ह्रदय की सुषुप्त ज्वालामुखी जो सुलगता रहता है और एक दिन फूट पड़ता है लावा बन आँखों से यादें ही तो हैं! © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

आज़ादी

क फ़स में कैद कर दो सांस चाहे,  जुबां पर ताले जड़ दो सारे पंख नोच डालो, या पैरों में बेड़ियां मढ़ दो हीर सी मौत दे दो या ज़िंदा ही दफन कर दो रूह आज़ाद है मेरी जां इश्क़ के गीत गाएगी   इश्क़ की लय में थिरकेगी फूल सी खिलखिलाएगी । © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

कृष्ण

बचपन से ही कृष्ण का चरित्र मुझे आकर्षित करता रहा है। हो सकता है इसका कारण बचपन में कत्थक सीखना रहा हो...जिसमें अधिकतर टुकड़े-भाव नृत्य कृष्ण के चरित्र पर ही आधारित हुआ करते थे । एक वजह ये भी हो सकता है कि हमारे घर में जन्माष्टमी बहुत ही धूमधाम से मनाई जाती थी। मैं कृष्ण के बारे में जितना सुनती , जितना पढ़ती....उनके प्रति प्रेम और भी बढ़ता जाता, उनका किरदार और भी दिलचस्प लगता। वहीं राम के बारे में ज़्यादा करीब से जानने की कभी इच्छा नहीं हुई, मुझे अक्सर ये लगता कि जो व्यक्ति  एक गर्भवती स्त्री को अपनी इज़्ज़त के लिए घर से निकाल सकता है वो पुरुषोत्तम कैसे हो सकता है? आज से करीब 15 साल पहले मर्यादा पुरुषोत्तम राम और कृष्ण पर मेरा किसी से विवाद हुआ तब मैं लिखी थी- तुम कहते हो  बदल दूं अपनी पसंद मिटा दूं ह्रदय से कृष्ण को और अंकित कर लूँ वहाँ राम का नाम तुम भूल जाते हो  पसंद बनाई नहीं जाती वह तो स्वतः उत्पन्न होती है यूँ तो अंतर है दोनों में एक युग का या यूँ कह लो कि एक छलिया है  तो दूजा पुरुषों में उत्तम राम पर क्या करूं  मुझे कान्हा सच्चा लगता है और राम कृत्रिम..

यूँ ही ....

हरचन्द ना तू हबीब है, ना है रकीब मेरा, तो भी अबस है ये जीस्त जिसमें तू नही। तेरी सोहबत हयातो-मौत- ही सही फिर भी, ज़िन्दगी अब तुझसे पहली-सी मोहब्बत ना रही । © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

चिड़ियाँ

शाम हो चली थी।  सारे बच्चे छत पर उधम मचा रहे थे।  उनकी धमा चौकड़ी की आवाज़ से बिट्टी का  पढ़ाई से ध्यान बार बार उचट रहा था, लेकिन फिर पापा की घूरती आँखें, उसके ध्यान को वापिस ७ के पहाड़ा पर टिका दे रही थी । अब वो ज़ोर ज़ोर से पहाड़ा याद कर रही थी "सात एकम सात, सात दूनी चाॉदह"  तभी आवाज़ आई "हमार चिरैयाँ बोलेला बउवा के मनवा डोलेला" बिट्टी अपने पिता की ओर देखी, उनका ध्यान कहीं और था।  वह तुरंत खिड़की पर पहुँच कर नीचे झाँकने लगी। मोम से बनी रंग बिरंगी छोटी छोटी चिड़ियाँ ।  उसकी इच्छा हुई की बस अभी सब में प्राण आ जाए और सब सचमुच की चिड़ियाँ बन जाए ।  वो मोम की चिड़ियों की सुंदरता में डूबी हुई थी ।  तभी नीचे से चिड़िया वाले ने पूछा - "का बबी चिरैयाँ चाहीं का, आठ आना में एगो। " बिट्टी ने ना में सर हिलाया ।  फेरी वाले ने पुचकारते हुए कहा " जाए द आठ आना में तू दुगो ले लिहा।" बिट्टी फिर ना में सर हिला कर वापिस पिता के पास बैठ गई थी । उसने सर उठा कर देखा भी नहीं लेकिन पिता जी की घूरती आँखों का अहसास तब भी था ।  कमाल की बात ये थी, कि आज तक कभी पिता जी ने ना उसको डां

खजाना

सुनो, साँझ के दस्तक देते ही हर रोज़ मेरी खातिर जो तोड़ लाते हो वक़्त की सुनहरी लड़ियाँ सहेजती जाती हूँ उन्हें मैं बड़े ही जतन से, एक बात कहूँ- मेरी साँसों का साथ निभाने के लिए ये खजाना पर्याप्त है! © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

आत्मसात

रकसां में डूबी, बादलों से उतरी थी, नन्ही सतरंगी परियां - मेरे घर की दहलीज़ पे नाचती रही थी देर तक फिर एक - एक कर समा गई मेरी रूह में - बारिश की बूंदों को, नाचते हुए, देखा है कभी ? © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

एक ख्याल .... बस यूँ हीं

ये रात अक्सर मुझ-सी लगती है, और बादल कुछ- कुछ, तुम-सा ! हँसता बादल, उदास रात, आज मिले हैं, बरसों बाद। (एक रात बादलों को भटकता देख उपजा एक ख्याल ) © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

ज़िन्दगी

कभी पतझड़,कभी सावन, कभी सहरा, तो कभी चमन, क़िस्सा-ए-ज़ीस्त भटकन के सिवा  और कुछ भी तो नहीं। © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

प्रेम की आर्द्रता

मन की गीली मिट्टी पे जो हर्फ़ बोये थे तुमने- अक्सर उनमें  कल्पनाओं के फूल खिलते हैं जिनकी खुशबू में भींगे रहते हैं मेरे रात और दिन - दिनों तक । जब भी तेज़ धूप में पौधे सूखने को आते हैं तुम्हारे प्रेम की आर्द्रता  उन्हें ज़िन्दगी दे जाती है। कभी जो सूर्य की तपिश बढ़ जाए कल्पनाएं दम तोडने लगे ख्वाब बिलबिलाने लगे झूठी रवायतों की सड़न पौधे की जड़ों तक पहुंचने को आतुर हो - अपने प्रेम की आर्द्रता यूँ ही बनाए रखना जीवन के  आखिरी लम्हे तक । © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

यूँ हीं ....

1.  लफ्ज़ चंद अंगारे जैसे लफ्ज़, फेंक दिया मेरी रूह पर, झुलस गयी ख्वाहिशें लेकिन- ज़िंदा है अब भी मेरा इश्क़ सहमा-सा ही सही !! 2. कमीज एक पीली -सी कमीज थी तुम पर बेहद जंचती थी आयरन करते हुए उस दिन,  उसका कॉलर जल गया था, कुछ कहा नहीं था मैंने, लेकिन,   बहुत कुछ खो दिया था - कल वैसी ही कमीज   किसी और ने पहनी थी लगा कि तुम हो  !! © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

शेष (क्षणिका)

कुछ पीले, उदास दिन, चंद खामोश, डूबती शामें, अनगिनत जागती रातें, और... सफ़ेद, संदली, सुबह का इंतज़ार - ज़िन्दगी के पन्नों में, अब यही तो शेष है । © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

कड़वा सच

कभी कभी राह चलते हुए कुछ ऐसे दृश्य नज़र आ जाते है, जो मन -मस्तिष्क को झकझोर कर रख देते हैं , नतीजतन  देर तक हम उसके असर से बाहर नही आ पाते । मेरा ऑफिस आना - जाना अक्सर निर्माण विहार मेट्रो स्टेशन से होता है।  वहाँ सीढ़ियों पर कुछ भीख मांगने वाले अक्सर बैठे दिख जाते है । वैसे मैं व्यक्तिगत तौर पर भीख देने के सख्त खिलाफ हूँ। उनलोगों को लेकर मेरा अनुभव भी कड़वा ही रहा है, फिर भी उनकी तरफ ध्यान चला ही जाता है।   उनलोगों में एक बेहद बुज़ुर्ग है, शायद कुष्ठ रोगी भी है... देह के नाम पर हड्डियों का ढांचा मात्र है। अक्सर अपने भिक्षापात्र , जो स्टील का जग है, एक जंजीर से बाँध कर रखते है और उस जंजीर का एक छोर उनके कमर से बंधा होता है । वहीं,एक ऐसा व्यक्ति भी है, जिसके दोनों हाथ नहीं है। ये सभी साथ हैं या अलग अलग, मेरी समझ में अब तक ये नहीं आया ।   वहाँ  अक्सर कुछ बच्चे भी नज़र आते हैं ,जो हर रोज़ भीख मांगने का अलग अलग तरीका अपनाते रहते हैं। कभी लिफ्ट में चढ़ कर ऊपर - नीचे करते रहेंगे, तो कभी किसी और तरीके से अपना मनोरंजन करते रहेंगे।  लेकिन ये तो रोज़मर्रा की बातें हैं जिन्हें देखने क

शक (कहानी "समानांतर" का एक अंश)

सू रज की पहली किरण के साथ मीता नींद से जागी। ऐसा लग रहा था जैसे अपनी ज़िंदगी के कितने खुशनुमा पल उसने सोते हुए गुज़ार दिए थे। एक लम्बी और गहरी नींद के बाद आज वो जागी थी, बेहद ताज़गी महसूस कर रही थी वो। मीता पुरानी सभी यादों को अपनी ज़िंदगी से मिटा देना चाहती थी। राजन की दी हुई जिस पायल की रुनझुन से उसका मन नाच उठता था आज वही उसे बेड़ियां लगने लगी थीं, कुमकुम की बिंदी लगाकर वो अपना चेहरा घंटो आईना में निहारा करती थी आज वही उसे दाग से लगने लगे थे।  मीता ने अपना लैपटॉप ओन किया और राजन को सारी बातें लिख डाली।  ये भी लिखा कि जिस दिन तुमने पहली बार मुझे शक की नज़र से देखा था सच कहूँ राजन तब ज़िंदगी में सिर्फ तुम थे, लेकिन मेरे प्रति तुम्हारा अविश्वास और मेरे लिए वक़्त नहीं होना, मुझे मोहन के करीब - और करीब लाता गया।  जब भी मुझे तुम्हारी ज़रूरत थी राजन, तुम मेरे पास नहीं थे लेकिन मोहन हमेशा साथ रहा और इसके लिए मै तुम्हारी हमेशा शुक्रगुज़ार रहूंगी, क्योंकि अगर तुम ऐसा नहीं करते तो मैं मोहन की अहमियत को कभी समझ नहीं पाती। मुझे ढूंढने की कोशिश मत करना, मैं तुम्हारी दुनिया से बहुत दूर

क्षणिकाएँ

१. मेट्रो की ज़िन्दगी कंक्रीट का जंगल मशीन से लोग खोजती रही खुद को दिख रही थी दूर तक सिर्फ धुंध । २. परेशानियों के थपेड़े यादों की रेत से बहा ले गए कई अनमोल पल शेष रह गया तो सिर्फ तुम्हारे प्यार का मोती जो अब भी बंद है मन की सीपी में कहीं। © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

पुनर्जन्म

अब जानना चाहते हो मेरी मौत का कारण ?? याद नहीं - सड़ी गली रिवायतों   की   बोझिल मान्यताओं   की लिजलिजी सोच की आडम्बरयुक्त   रिश्ते की ज़िम्मेदारियों के बोझ की ज़हरीली घुट्टी तुमने ही तो पिलाई थी। बचपन में ही मेरे कोमल मन पे गोदा था तुमने दकियानूसी तालीम को , दर्द से कराही थी मैं रोना भी चाहती   थी लेकिन ज़हर के असर ने छीन लिया था हक़ - रोने का सवाल पूछने का अपनी बातें कहने का आज़ादी की सांस लेने का। मैंने भी समेट लिया खुद को अपने ही खोल में तुम सब मेरी हंसी देखते रहे लेकिन वो तो खोखली थी मै तुम्हारे पास बैठ कर सुडोकु खेलती पर   दिमाग तो उलझा था ज़िन्दगी के जाल में मैं अभी मरना नही चाह्ती थी   कई अरमान थे जिन्हें पूरा करना था कई ख्वाब थे जो अब अधूरे ही रहेंगे सच कहूँ - मुझे मौत देनेवाले तुम्ही हो - तुमसब ।। -------------- प्रियम्बरा © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!