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Showing posts from 2020

दिल्ली की एक उदास सुबह

उदास सिर्फ मनुष्य ही नहीं होते. पशु-पक्षी-पेड़-पौधे सब पर उदासी छाती है. सभी मातम मनाते हैं . फिजाएं भी अपनी रौनक खो देती है. धरती और प्रकृति के लिए भले ही साँस लेना आसान हुआ हो पर वह प्रसन्न तो हरगिज़ नहीं है. यह महसूस किया जा सकता है. पूरे  20 दिन बाद आज सुबह 7 बजे ऑफिस के लिए निकली थी. इन 20 दिनों में मेरी ज़िन्दगी, मेरे फ्लैट तक सिमट कर रह गयी थी. ज़रूरत पड़ने पर नीचे स्थित किराने की दूकान में जाना हो रहा था.  20 दिनों बाद मुख्य सड़क पर निकलना...जैसे सारे रास्ते अजनबी हो गए हों. दिल्ली की सुबह कभी इतनी खामोश नहीं देखी. न ट्रैफिक की मारामारी, न किसी तरह की चिल्ल पौं थी. जगह-जगह बैरीकेडिंग. पिछले 20 दिनों में काफी कुछ है जो बदल गया है. 'कोविड 19' ने न सिर्फ लोगों की रहन-सहन को बदल दिया है, बल्कि सोचने समझने की शक्ति में भी बदलाव आया है. सभी 'भय और शक' की गिरफ्त में हैं. सभी किसी उहापोह में जी रहे . घर पर सबकुछ है  पर फिर भी ख़ुशी नहीं. आज से 20 दिन पहले सेमल के वृक्ष लाल फूलों से लदे थे. आज वे ठूंठ से रह गए हैं, कुछ वृक्षों में फूलों का स्थान हरी-ज़र्द पत्तियों ने ल

अफसोस...

भारत एक ऐसा देश है जहां पुरुष स्वयं को कामदेव समझते हैं और स्त्रियों से अपेक्षा की जाती है कि वे सती सावित्री बनी रहें। जहां प्रियंका चोपड़ा को उनकी ड्रेस के लिए ट्रोल किया जाता है। राह चलती किसी भी लड़की पर उनके कपड़े को लेकर फब्तियां कसी जाती हैं तो वहीं लड़के, लड़कियों की भीड़ में खुल्लम खुल्ला अपने अंग दिखाते हुए खुद को गर्वान्वित महसूस करते हैं। ऐसी हरकतों से उनकी मर्दानगी उछल-उछल कर बाहर आती है। भारत उन देशों में शामिल है जहां 99 फीसदी महिलाएं कभी न कभी ऐसी हरकतों का शिकार हुई हैं। उनके साथ किसी न किसी प्रकार का शोषण हुआ है और उन्हें समाज का हवाला देकर चुप करवा दिया गया। ( ये आंकड़े अनुभव जनित हैं। आप अपनी माँ, पत्नी, बेटी और बहनों से पूछ सकते हैं) घटना का जो विभत्स विवरण सामने आ रहा वह सम्पूर्ण समाज को शर्मसार करने वाला है। उनमें एक भी ऐसा शख्स नहीं था जो उन्हें रोक सके? घिनौना सच है! मतलब स्त्रियों पर पाबंदी लगाने के लिए आप इस हद तक जाएंगे... और सभी चुप होकर तमाशा देखेंगे! शायद इन्हीं हरकतों की वजह से भारत को स्त्रियों के लिए सबसे असुरक्षित देश माना गया था।  बहुत साल पहले भारत

अब इतिहास हुआ प्रगति मैदान मेट्रो स्टेशन

जब से ब्लू लाइन शुरू हुआ, तब से हमारे लिए कहीं भी आने-जाने का सबसे सुगम मार्ग मेट्रो ही रहा है. घर से दफ्तर तक के मेट्रो स्टेशन...कितने कदम पर कौन सी कोच मिलेगी...ये सब रट सा गया है. इस कदर सारे रास्ते मानस पटल पर अंकित हैं  कि आँखें बंद हो तो भी घर से दफ्तर और दफ्तर से घर पहुँच जाऊं. ज़रा सा भी कुछ इधर से उधर हुआ तो वजह ढूंढने लग जाती हूँ.   हफ्ते भर पहले की बात है, रात के समय ऑफिस से घर लौट रही थी तब पहली बार मेट्रो में उद्घोषणा सुनी 'सुप्रीम कोर्ट स्टेशन'. मैं घबरा गयी, "यह कौन सा स्टेशन आ गया? गलत रूट की मेट्रो में तो नहीं चढ़ गयी?" मेट्रो का दरवाज़ा खुलते ही मैं बाहर झाँकने लगी. सामने बोर्ड लगा था 'सुप्रीम कोर्ट'. मैं अचकचाई. बोर्ड के एक तरफ मार्क था 'मंडी हाउस' तो दूसरी ओर मार्क था 'इन्द्रप्रस्थ'. यह देख कर राहत मिली कि मैं गलत रूट कि मेट्रो में नहीं हूँ. मोबाइल पर गुगल किया तो पता चला इस बदलाव का फैसला दिल्ली सरकार की नामकरण समिति ने 31 दिसम्बर को ही किया था.  'प्रगति मैदान' मेट्रो स्टेशन का नाम अब भी जुबां पर है और का

'बारिश के अक्षर'

मेरी ज़िंदगी के कुछ खुशनुमा और महत्वपूर्ण लम्हों में से एक रही 11 जनवरी 2020 की शाम। यह पहला मौका था जब मेरी कहानी संग्रह 'बारिश के अक्षर' के लोकार्पण के साथ ही उस पर परिचर्चा भी होनी थी। घबराहट थी और एक डर भी था इतने बड़े मंच पर कार्यक्रम सफलतापूर्वक हो पाएगा? यह चिंता खाए जा रही थी, तिस पर सबसे अंतिम वाला चंक यानी शाम साढ़े छह से पौने आठ का समय मिला था। ऐसा लग रहा था कि पता नहीं दर्शक-श्रोता रहेंगे भी या नहीं!  वक्ता के रूप में जिन्हें आमंत्रित किया गया उनमें से दो ने पहले ही अपनी असमर्थता जता दी और तीसरे अतिथि/वक्ता ने कार्यक्रम वाले दिन फोन ही नहीं उठाया। मतलब सारी परिस्थितियां उलट थीं। अपनी ओर से तैयारी पूरी थी। साथियों-रिश्तेदारों का साथ और सिर पर हाथ बना हुआ था। कार्यक्रम शुरू हुआ और इतना अच्छा गया कि डर-घबराहट-ऐन मौके पर डिच किये जाने की तकलीफ सब खत्म हो गयी।  लेखक मंच पर कहानी संग्रह ‘बारिश के अक्षर’ का लोकार्पण सफलतापूर्वक संपन्न हुआ इसके साथ ही परिचर्चा भी सफल रही। अतिथियों का स्वागत और आयोजन में सहयोग श्रेया सिन्हा, रजत बक्सी, रूहिका बक्सी, डॉ नेहा श्रीवास्तव,अनुपम