Skip to main content

जो बीत गई सो बात गई















"जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई "
शायद आठवीं या नौवीं कक्षा में थी जब ये कविता पढ़ी थी... आज भी इसकी पंक्तियाँ ज़ेहन में वैसे ही हैं।  उससे भी छोटी कक्षा में थी तब पढ़ी थी -
"आ रही रवि की सवारी।
नव-किरण का रथ सजा है,
कलि-कुसुम से पथ सजा है,
बादलों-से अनुचरों ने स्‍वर्ण की पोशाक धारी।
आ रही रवि की सवारी।"
बच्चन जी की ऐसी न जाने कितनी कविताएँ हैं जो छात्र जीवन में कंठस्थ हुआ करती थीं। संभव है इसका कारण कविताओं की ध्वनि-लय और शब्द रहे हों जिन्हें कंठस्थ करना आसान हो। नौकरी के दौरान बच्चन जी की आत्मकथा का दो भाग पढ़ने को मिला और उनके मोहपाश में बंधती चली गयी। उसी दौरान 'कोयल, कैक्टस और कवि' कविता पढ़ने का मौका मिला। उस कविता में कैक्टस के उद्गार  -
"धैर्य से सुन बात मेरी
कैक्‍टस ने कहा धीमे से,
किसी विवशता से खिलता हूँ,
खुलने की साध तो नहीं है;
जग में अनजाना रह जाना
कोई अपराध तो नहीं है।"  
मेरी पसंदीदा पंक्तियों में से है। ऐसा लगता है जैसे ये पंक्ति मेरे लिए ही हो। हरिवंश राय बच्चन का नाम उन कवियों में शुमार है जिन्होंने जीवन के फलसफा को कविताबद्ध किया... जीवन की अनुभूतियों-प्रत्येक भावों को शब्दों में पिरोकर जीवन जीने की प्रेरणा दी। एक अच्छे साहित्यकार के साथ ही वे बेहद सरल एवं सुलझे हुए व्यक्ति थे। रामदरश मिश्र, बालस्वरूप राही ये आज के वरिष्ठ एवं चर्चित कवि हैं लेकिन तब ये बिलकुल युवा थे और कवि के रूप में स्थापित होने के लिए प्रयासरत थे।  ये दोनों ही इस बात की पुष्टि करते हैं कि बच्चन जी न सिर्फ एक अच्छे कवि-लेखक-साहित्यकार थे, बल्कि वह बेहद स्नेहिल भी थे।  अपने से छोटों को प्रोत्साहित करना उन्हें प्यार देना उनके व्यक्तित्व का हिस्सा था। 

सुप्रसिद्ध कवि एवं लेखक हरिवंश राय बच्चन का जन्म 27 नवम्बर 1907 को उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव बाबूपट्टी में हुआ था। इनके पिता का नाम प्रताप नारायण श्रीवास्तव तथा माता का नाम सरस्वती देवी था। परिवार में  सबसे छोटे होने की वजह से उन्हें प्यार से बच्चन बुलाया जाता था। किसी ने यह नहीं सोचा था कि यह पुकार का नाम एक दिन देश के सर्वाधिक चर्चित नामों में से एक होगा। हरिवंश राय ने अपनी रचनाओं में खुद को बच्चन लिखना शुरू कर दिया और उनका यही उपनाम लोकप्रिय हो गया। उनकी प्रारंभिक शिक्षा म्युनिसिपल स्कूल एवं कायस्‍थ पाठशाला में हुई, जहां उन्हें उर्दू की भी प्रारंभिक शिक्षा मिली।   

वर्ष 1926  में सिर्फ 19 वर्ष की उम्र में हरिवंश राय बच्चन का विवाह श्यामा से हुआ जो उस समय 14 वर्ष की थीं, लेकिन उनका साथ ज़्यादा दिनों तक नहीं रहा और लम्बी बिमारी के बाद 1936 में श्यामा का निधन हो गया। ये वो दौर था जब उनकी कविताओं में अकेलापन एवं दुःख के भाव गहराई से प्रकट हुए। 
"अगणित उन्मादों के क्षण हैं, 
अगणित अवसादों के क्षण हैं, 
रजनी की सूनी घड़ियों को किन-किन से आबाद करूँ मैं! 
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं! 
याद सुखों की आँसू लाती, 
दुख की, दिल भारी कर जाती, 
दोष किसे दूँ जब अपने से, अपने दिन बर्बाद करूँ मैं! 
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं! "
इसे पढ़ते हुए उनकी तन्हाई, उनके अवसाद, उनका अकेलापन पाठकों  की आँखों में भी आंसू ला देता है। 

1941 में हरिवंश राय बच्चन ने तेजी सूरी से शादी कर ली। तेजी सूरी पंजाबी थी तथा रंगमंच एवं गायन से जुड़ी थीं।  उनका प्रेम विवाह था।  तेजी हरिवंश राय की कविताओं की मुरीद थी।  काव्य पाठ के दौरान ही वे दोनों करीब आए और आगे चलकर विवाह के बंधन में बंध गए।  यही वो दौर था जब बच्चन जी ने 'नीड़ का निर्माण फिर' जैसी कविताओं की रचना की। 
हरिवंश राय बच्चन को उनकी कृति मधुशाला की वजह से काफी लोकप्रियता मिली। आज भी हिंदी की सर्वाधिक खरीदी और पढ़ी जाने वाली कविताओं में हरिवंश राय बच्चन की कविताओं का ही नाम आता है। ‘मधुशाला’ 1935 में लिखी गई बच्चन जी की दूसरी रचना थी। यह वह दौर था जब प्रगतिवाद की नींव पड़ रही थी और छायावाद युग अपने अंतिम दौर में था।बच्चन जी ने छायावाद के कोहरे को समाप्त किया और हालावाद से एक नया प्रयोग किया।  उमर खैय्याम की रुबाइयों का हिंदी अनुवाद करना ही मधुशाला लिखे जाने का आधार बना। हालांकि यह कार्य इतना सहज नहीं था क्योंकि रुबाइयों में शब्दों के अर्थ के साथ साथ उसकी ध्वनि को पकड़ना एक चुनौती थी जिसके बारे में बच्चन जी लिखते हैं -
“अंग्रेजी मूल में रुबाइयात में भाव-अर्थ-सौंदर्य ही नहीं, ध्वनि सौंदर्य भी है।  और उसका पूरा प्रभाव तभी ग्रहण किया जा सकता है जब उसे सस्वर पढ़ा जाए।  वैसे तो मैं हर कविता को सस्वर पढ़ने के पक्ष में हूँ, तथाकथित ‘नई कविता’ को भी ! आप इस अनुवाद को सस्वर पढ़ें।” 
कारण चाहे जो भी रहा हो किन्तु मधुशाला बच्चन जी की सर्वाधिक लोकप्रिय कृतियों में से रही। 
बच्चन जी की कविताओं में निरंतर बदलाव एवं विकास देखने को मिलते हैं। मंचीय लोकप्रियता के साथ ही उन्हें अनेक पुरस्कारों एवं सम्मान से भी नवाज़ा गया। कविता संग्रह 'दो चट्टाने' के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार और एफ्रो एशियाई सम्मेलन के कमल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। उनकी आत्मकथा के लिए उन्हें सरस्वती सम्मान प्रदान किया गया। उन्हें पद्म भूषण से भी सम्मानित किया गया।  
हरिवंश राय बच्चन को विदेश मंत्रालय में हिंदी का विशेष कार्याधिकारी नियुक्त किया गया। उन्हें राज्य सभा की मानद सदस्यता भी मिली। सामान्य बोलचाल की भाषा को काव्य भाषा की गरिमा प्रदान करने का श्रेय निश्चय ही बच्चन जी को जाता है। कविता के अतिरिक्त 'बच्चन' जी की चार खण्डों में लिखी गयी आत्मकथा भी बेहद लोकप्रिय रही है।  उन्होंने कुछ समीक्षात्मक निबन्ध भी लिखे हैं, जो पठनीय हैं। उन्होंने शेक्सपीयर के नाटकों के अनुवाद किये और  'भगवद गीता' के दोहे-चौपाइयों पर 'जनगीता' लिखी।   
18 जनवरी, 2003 को 95 वर्ष की आयु में हरिवंश राय बच्चन सदा के लिए गहरी नींद सो गए।

"मेरे अधरों पर हो अंतिम
वस्तु न तुलसी-दल, प्याला,
मेरी जिव्हा पर हो अंतिम
वस्तु न गंगाजल, हाला,
मेरे शव के पीछे चलने-
वालो, याद इसे रखना--
'राम नाम है सत्य' न कहना,
कहना 'सच्ची मधुशाला' ।"
ऐसा सिर्फ और सिर्फ बच्चन जी ही लिख सकते थे।  






© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Comments

Popular posts from this blog

हुंकार से उर्वशी तक...(लेख )

https:// epaper.bhaskar.com/ patna-city/384/01102018/ bihar/1/ मु झसे अगर यह पूछा जाए कि दिनकर की कौन सी कृति ज़्यादा पसंद है तो मैं उर्वशी ही कहूँ गी। हुंकार, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी जैसी कृति को शब्दबद्ध करने वाले रचनाकार द्वारा उर्वशी जैसी कोमल भावों वाली रचना करना, उन्हें बेहद ख़ास बनाती है। ये कहानी पुरुरवा और उर्वशी की है। जिसे दिनकर ने काव्य नाटक का रूप दिया है, मेरी नज़र में वह उनकी अद्भुत कृति है, जिसमें उन्होंने प्रेम, काम, अध्यात्म जैसे विषय पर अपनी लेखनी चलाई और वीर रस से इतर श्रृंगारिकता, करुणा को केंद्र में रख कर लिखा। इस काव्य नाटक में कई जगह वह प्रेम को अलग तरीके से परिभाषित भी करने की कोशिश करते हैं जैसे वह लिखते हैं - "प्रथम प्रेम जितना पवित्र हो, पर , केवल आधा है; मन हो एक, किन्तु, इस लय से तन को क्या मिलता है? केवल अंतर्दाह, मात्र वेदना अतृप्ति, ललक की ; दो निधि अंतःक्षुब्ध, किन्तु, संत्रस्त सदा इस भय से , बाँध तोड़ मिलते ही व्रत की विभा चली जाएगी; अच्छा है, मन जले, किन्तु, तन पर तो दाग़ नहीं है।" उर्वशी और पुरुरवा की कथा का सब

यादें ....

14 फरवरी - प्रेम दिवस...सबके लिए तो ये अपने अपने प्रेम को याद करने का दिन है,  हमारे लिए ये दिन 'अम्मा' को याद करने का होता है. हम अपनी 'दादी' को 'अम्मा' कहते थे- अम्मा के व्यक्तित्व में एक अलग तरह का आकर्षण था, दिखने में साफ़ रंग और बालों का रंग भी बिलकुल सफेद...इक्का दुक्का बाल ही काले थे... जो उनके बालों के झुरमुट में बिलकुल अलग से नजर आते थे. अम्मा हमेशा कलफ सूती साड़ियाँ ही पहनती.. और मजाल था जो साड़ियों की एक क्रिच भी टूट जाए। जब वो तैयार होकर घर से निकलती तो उनके व्यक्तित्व में एक ठसक होती  । जब तक बाबा  थे,  तब तक अम्मा का साज श्रृंगार भी ज़िंदा था। लाल रंग के तरल कुमकुम की शीशी से हर रोज़ माथे पर बड़ी सी बिंदी बनाती थी। वह शीशी हमारे लिए कौतुहल का विषय रहती। अम्मा के कमरे में एक बड़ा सा ड्रेसिंग टेबल था, लेकिन वे कभी भी उसके सामने तैयार नही होती थीं।  इन सब के लिए उनके पास एक छोटा लेकिन सुंदर सा लकड़ी के फ्रेम में जड़ा हुआ आईना था।  रोज़ सुबह स्नान से पहले वे अपने बालों में नारियल का तेल लगाती फिर बाल बान्धती।  मुझे उनके सफेद लंबे बाल बड़े रहस्यमय