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जाना -हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है


















हली बार साहित्य संसार के माध्यम से उन्हें सुनने का मौक़ा मिला था लेकिन तब मेरा काम सिर्फ और सिर्फ कार्यक्रम का प्रोडक्शन था।  इसलिए मेरा पूरा ध्यान कैमरे के कोण पर टिका था। कार्यक्रम खत्म होने के बाद हमारी बेहद छोटी और औपचारिक बातचीत हो सकी। शायद 2008 या 2009 की बात रही होगी।  उसके बाद पूरे आठ या नौ साल बाद उनका साक्षात्कार लेने का मौक़ा मिला। ये मौक़ा भी बहुत मुश्किल से मिला था। इसके लिए मैंने जाने कितनी बार उनसे फ़ोन पर बातें की।  हर बार वे तबियत खराब की बात कहकर टाल जाते थे। कभी वे दिल्ली से बाहर होते, जब दिल्ली में होते तो तबियत खराब है बोल कर बात टाल जाते और हर बार उनका साक्षात्कार करने का मेरा जोश कम पड़ जाता। एक दिन जब अनामिका जी के साक्षात्कार के लिए मैं उनके घर पहुंची थी उस दिन वहीं अचानक मेरी मुलाक़ात केदारनाथ जी से हुई। मैंने उनसे बात की और उन्होंने आज्ञा दे दी।


तय दिन उनके घर पहुंचना था। अपनी ओर से पूरी तरह सतर्क थी कि कहीं गलती से भी मुझे

देर ना हो जाए। साक्षात्कार शुरू हुआ।  धीरे-धीरे मैं भी सहज होती गई। उन्होंने अपनी प्रिय

कविता कपास के फूल सुनाई। कविता सुनाने के साथ-साथ उन्होंने उस कविता का वर्णन भी

किया। किसी शिक्षक की तरह एक-एक शब्द समझाते जा रहे थे।   


“वह जो आपकी कमीज है

किसी खेत में खिला

एक कपास का फूल है”


उसके बाद उन्होंने उनकी एक और प्रिय कविता ‘बनारस’ सुनाई।  ‘बनारस’ कविता सुनते हुए

अक्सर लोग भावुक हो जाया करते थे। उन्होंने इस कविता से जुड़े कई संस्मरण सुनाए। वे कहा

करते थे कि कविताओं की भी किस्मत होती है, कुछ बिना प्रयास पाठकों के मन तक पहुँच जाती

है और कुछ कितनी भी कोशिश कर लो दूर रह जाती हैं।

उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के छोटे से गाँव से आने वाले केदारनाथ सिंह जी की पढ़ाई बनारस

में हुई और गाँव की तरह ये शहर भी उनके दिल में रच बस गया।  दिल्ली आने के बाद गाँव

और बनारस की यादें कचोटती रही जो उनके लेखन की प्रेरणा बनी।  गाँव की स्मृति,

लोक संस्कृति, प्रकृति का सानिध्य इन सब ने उन्हें लिखने के लिए बाध्य किया। साक्षात्कार

के दौरान उन्होंने अपनी माँ से जुड़ी अनेक बातें साझा की। भारतीय भाषाओं का एक अलग

ध्वनि सौंदर्य होता है। जिसकी वजह से अलग-अलग प्रांत, भाषा और संस्कृति के लोग आसानी

से एक दूसरे के साथ घनिष्ठता कायम करने में सफल हो जाते हैं। ये बताते हुए कि कैसे उनकी

‘माँ’ सिर्फ भोजपुरी जानने के बाद भी सभी भाषा भाषियों के साथ घनिष्ठता कायम करने में

सफल रही थीं, उनके चेहरे पर छलक आई ख़ुशी देखी जा सकती थी। लम्बे समय से महानगर

में रहने के बावजूद वे अपने गाँव को बहुत याद करते थे। उन्होंने अपनी बोली में अनेक कविताएँ

भी लिखी हैं। हालाँकि उसे कभी मुकम्मल पुस्तक का रूप नहीं दे सके। वे लिखते भी हैं -

“हिंदी मेरा देश है

भोजपुरी मेरा घर

....मैं दोनों को प्यार करता हूं

और देखिए न मेरी मुश्किल

पिछले साठ बरसों से

दोनों को दोनों में

खोज रहा हूं।”


वे कहते थे कि आज की कविताएँ सूक्ष्म अनुभूति वाली हैं जिन्हें समझने के लिए पढ़ना ज़रूरी है।

वे कविताओं को पहले देखते थे फिर लिखते थे। उस साक्षात्कार के दौरान मैंने उनसे अनेक

कविताएँ सुनी। अंत में  मैंने खासतौर से ‘एक लोकगीत की अनुकृति’ सुनाने का आग्रह किया।  

उन्होंने मना कर दिया, कहा “इसमें बहुत सी ऐसी बातें हैं जो तुम्हारे जैसी छोटी बच्ची के सामने

नहीं कही जा सकती।” मैंने कहा “सर ये तो कविता है, और बहुत ही सुन्दर कविता है,

प्लीज सुनाइये सर।” फिर इस शर्त पर कि इस कविता का हिस्सा मैं साक्षात्कार में नहीं

दिखाऊँगी, उन्होंने ये कविता सुनाई।  इस कविता को सुनाते हुए उनका चेहरा सुर्ख हुआ

जा रहा था  -

“आम की सोर पर

मत करना वार

नहीं तो महुआ रात भर

रोएगा जंगल में

कच्चा बांस कभी काटना मत

नहीं तो सारी बांसुरिया

हो जाएंगी बेसुरी

कल जो मिला था राह में

हैरान-परेशान

उसकी पूछती हुई आँखें

भूलना मत

नहीं तो सांझ का तारा

भटक जाएगा रास्ता

किसी को प्यार करना

तो चाहे चले जाना सात समुंदर पार

पर भूलना मत

कि तुम्हारी देह ने एक देह का

नमक खाया है।”


हालांकि मैं आज तक नहीं समझ पायी कि इस कविता को सुनाते हुए वे झिझके क्यों ! बहरहाल मुझे तो बहुत मज़ा आया।  केदारनाथ जी का सानिध्य, उनकी कविताएँ।  मैं आरा की हूँ ये जानकर मुझसे भोजपुरी में बातें करना, अपनत्व से भरा था।


केदारनाथ जी के जाने के बाद साहित्य एवं कविता जगत में उत्पन्न रिक्तता को भर पाना मुश्किल है।   




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