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Showing posts from February 22, 2009

भीख मांगने की मजबूरी

दिल्ली में जहाँ देखो एक चीज़ बड़ी ही कोमोन नज़र आती है वो है हर गली, नुक्कड़, चौक- चौराहों, रेड लाइट्स पर भीख मांगने वालों की अच्छी खासी तादाद। अगर मंगलवार हो तो हनुमान मन्दिर, गुरुवार हो तो साईं मन्दिर, शुक्रवार हो तो मस्जिद और शनिवार को शनि मन्दिर के आस पास भीख मांगने वालों से मुलाक़ात हो ही जाती है। कहीं शारीरिक विकलांगता भीख मांगने पर मजबूर करती है तो कहीं अच्छा भला आदमी भीख के लिए ख़ुद के विकलांग होने का ढोंग रचता है। ये मैं यू ही नहीं लिख रही हूँ... मैंने अपनी आंखों से देखा है। अक्सर ऑफिस जाने के लिए मुझे जनपथ से होकर जाना पड़ता है। वहां एक हाथ वाली , कद काठी से अच्छी भली लड़की भीख मांगती अक्सर नज़र आ जाएगी। बहुत सारे लोगों ने अक्सर उसपर तरस खाकर उसे पैसे भी दिए होंगे, क्योंकि एक बार ये गलती मैं भी कर चुकी हूँ। हाल ही में मैं बस से उस रास्ते से गुज़र रही थी तो देखा उसने अपने गंदे और ढीले से समीज में अपने दूसरे हाथ को छिपाए लोगों से एक हाथ से भीख मांग रही थी। जैसे ही लाल बत्ती खुली वो फ़िर से अपने दोस्तों के साथ मिलकर दोनों हाथों से समोसे खाने लगी। मुझे ये देखकर बेहद अफ़सोस हुआ, साथ ही

गाँधी या कमांडो ?

इन दिनों आईडिया का एक विज्ञापन टीवी चैनेल्स पर छाया हुआ है। विज्ञापन में एक लड़की होती है जिसे बस स्टैंड पर एक युवक छेड़ रहा होता है। वो अपने मोबाइल फ़ोन से सबसे सुझाव मांगती है... दो ऑप्शन्स होते हैं ... गाँधी या कमांडो ? जनता का मेस्सज आता है, जिनमे निन्यानवें प्रतिशत लोगों का मत होता है कमांडो सिर्फ़ एक प्रतिशत का ही वोट गाँधी को जाता है। उसके बाद लड़की एक किक्क मारती है और इव टीसर चारों खाने चित्त। विज्ञापन देखकर एक सवाल मेरे मन में उठा की क्या इस तरह से महात्मा गांधी की तुलना करना और फ़िर उन्हें हारते हुए दिखाना उचित है? मैं यही सवाल आप सभी से करती हूँ ... क्या ये उचित है? जिसने भी इस विज्ञापन की स्क्रिप्टिंग की हो अगर वो अपनी स्क्रिप्ट में थोड़ा सा फेर बदल कर लिया होता और गाँधी की जगह गांधीगिरी कर देता तो शायद उसका अर्थ थोड़ा अलग हो जाता...या फ़िर ये हो सकता है की मैं इसे लेकर कुछ ज़्यादा सोंच गई, पर ये सच है की हाँ मुझे ये अच्छा नहीं लगा।