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Showing posts from February 1, 2009

... समय के साथ बदल रही है गाँधी जी की सीख

एक समय था जब गाँधी जी के बंदरों की कहानी जूनियर स्कूल की किताबों में हुआ करती थी। बचपन में ही गाँधी जी के बंदरों का महत्व बताया जाता था। एक बन्दर जो अपनी आँखें बंद किया है उसका अर्थ है बुरा मत देखो , दूसरा जो मुंह बंद किया है उसका मतलब है बुरा मत बोलो और तीसरा जो कान बंद किया है उसका अर्थ है बुरा मत सुनों। वक्त बदला ... समाज बदला और आज के सन्दर्भ में उसका अर्थ भी बदल गया है। आज पहले बन्दर का अर्थ है कुछ भी ग़लत होता रहे आँखें बंद रखो, दूसरे का मतलब है चाहे तुम जानते हो की ये सही है और ये ग़लत दूसरों को कभी सलाह मत दो, और जिसने कान बंद किया है उसका मतलब है तुम्हारे सामने कुछ भी ग़लत हो अपने कान बंद रखो ताकि दूसरों की परेशानिओं से तुम्हे परेशानी ना हो। समय के साथ सीख भी बदल गई। लेकिन अफ़सोस तब हुआ जब मेरे एक बहुत ही पसंदीदा ब्लॉग में महात्मा गाँधी के चौथे बन्दर की कहानी को छापा गया। ऐसा लगा जैसे गाँधी जी की शिक्षा या फ़िर उनकी बातों का मजाक बनाया जा रहा है। मुझे काफ़ी अफ़सोस हुआ और शायद हर उस बन्दे को अफ़सोस हो जो महात्मा गाँधी का सम्मान करता हो। © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

...जो छूट गया वह कहाँ मिले?

माघ महीने की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को बसंत पंचमी कहते हैं।  इस दिन माता सरस्वती की पूजा की जाती है । सरस्वती पूजा के साथ ही शुरू हो जाता है मादक  बसंत।  जाड़े का मौसम विदा लेता है गर्मी दस्तक देती है।  पुराने पत्ते गिरते हैं और नए पत्तों से पेड़-पौधे सज जाते हैं। हर तरफ रंग-बिरंगे फूलों की खुशबू तैर रही होती है ।  ये मौसम होता है रंगों का। फूलों पर मंडराती रंग बिरंगी तितलियाँ और गुनगुनाते भँवरे इस मौसम में यदा-कदा  दिख जाते हैं। राग बहार भी तो इसी मौसम का राग है "कलियन संग करता रंगरलियाँ, भंवर गुंजाए फुले फुलवारी। " यह मौसम सृजन का मौसम होता है, कला का मौसम होता है। शायद यही वजह रही होगी जो कला की अधिष्ठात्री देवी की पूजा भी इसी मौसम में की जाती है। जाड़े के अवसादपूर्ण मौसम के बाद बसंत का उल्लास  सम्पूर्ण जीवों में आनंद भर देता है। कोयल पंचम सुर में गीत सुनाने लगती है। बचपन से ही मुझे बसंत का मौसम बेहद प्रिय रहा है। न तो ज़्यादा ठण्ड होती है और न ही उमस वाली गर्मी । आम के पेड़ों पर मोजर (मंजरी) लगने लगता है। ज्यादातर फूलों के खिलने का मौसम यही होता है। एक समय था जब आर

...लेकिन शर्म उनको आती नहीं.

मुझे शिकायत है उनलोगों से जो बसों में आम तौर पर वरिष्ठ नागरिक की सीट पर कब्ज़ा जमा कर बैठ जाते हैं और बुजुर्ग खड़े होकर यात्रा करने पर मजबूर होते हैं। अगर कभी अपने वरिष्ठ होने की बात कहकर वे उन्हें उठाने की कोशिश करते हैं तो ये लोग बेशर्मों की तरह हंस कर अपनी नज़रें चुरा लेते हैं और बुजुर्ग खड़े रह जाते हैं। मुझे शिकायत है उन नौजवानों से भी जो बसों में, भीड़ में लड़कियों और महिलाओं को छूने के बहाने खोजते हैं।अगर कोई महिला या लड़की उन्हें इसके लिए रोकने का हिम्मत जुटाती है तो वे बडे ही बेशर्मी से उनसे लड़ बैठते हैं। मुझे शिकायत उनसे भी है जो धुम्रपान निषेध की वैधानिक चेतावनी के बावजूद सार्वजनिक जगहों पर सिगरेट पिते हैं और अपने साथ साथ औरों की भी बीमारी की वजह बनते हैं। शिकायतें तो बहुत हैं....लेकिन ये कुछ ऐसी समस्याएं है जिनसे हम लडकियां रोज ही दो चार होते हैं । पर सवाल ये उठता है की आखिर किस किस का और कहाँ कहाँ विरोध करें? कभी मुंबई, कभी डेल्ही, कभी मंगलूर तो कभी कानपुर में नैतिकता के बहाने समाज के ठेकेदार जब अपनी ठेकेदारी पर उतरते हैं तब क्या उन्हें ये सब नज़र नहीं आता या, वे भी उनमें से ही