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आदमी

आदमी,
मंच पर खड़ा होकर
लाखों जनता के सामने कहता है
भारत कि स्त्रियाँ "सीता और सावित्री" हैं
मैं उनका सम्मान करता हूँ।
तालियों कि आवाज़
जनता आदमी कि जयकार करती है।
आदमी,
अन्धकार में "दुह्शासन" बन जाता है।
"सीता और सावित्री"उसे
"द्रोपदी"नज़र आती है ।
द्रोपदी "विलाप करती है
लेकिन आज...
कोई " कृष्ण " नहीं आता
जनता " कौरव " बन जाती है।
और ,
" द्रोपदी " कि चीत्कार
कौरवों के अट्टहास में खो जाती है।


Comments

सच को निर्वस्त्र करती आपकी यह कविता दर्द को समेटने को बाध्य तो करती ही है .
Bandmru said…
कितना दर्द हैं इस कविता में। कौरवों में गंधारी भी होती हैं। जो तमाशबीन बने देखती रहती हैं।
अच्छी हैं।

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